Sunday, September 23, 2012

उलाहना



तुमसे जो कहना था
कभी नहीं कहा .
तुमसे जो सुनना चाहा
वो तुमने नहीं कहा .
रिश्ता....हमारा
कोमल एहसासों की
नरम गर्माहट में बस ऐसे ही
पलता रहा...बढ़ता रहा .

तुम अपनी आशंकाओं में घिरे रहे
मुझे दुविधाओं से फुर्सत न मिली
नतीजा उसका यह हुआ
कि हम....
दूर हुए ..मजबूर हुए
अलग-अलग ज़िंदगी जीने को..

आसानी से हमारा संग-साथ
मुमकिन हो सकता था
आज जो सबसे बड़ा दुःख है
वो सबसे बड़ा सुख हो सकता था .
वो चाहते रहना और कह न पाना
सोचने बैठूं ...
तो मलाल सा होने लगता है
खुद पे और तुमपे भी गुस्सा आता है .
सामने हाथ बढाने की देर थी
तू मेरा हो सकता था .
ज़रा सी कोशिश,थोड़ी सी हिम्मत से
सब बदल सकता था.
पता है....इसीलिए अब
जब भी ख़्वाब आते हैं
उनमें भी हम एक दूजे को नहीं पाते हैं
वो सारे सपने भी अपने साथ
सिर्फ ढेर से उलाहने लाते हैं .

8 comments:

  1. जो हाथ मेन होता है उससे किसी को कहाँ तसल्ली होती है .... दूर के ढ़ोल सुहावने लगते हैं ... दुविधा से निकल आज को जी लें

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    1. जो हाथ में रहा हो और छूट गया हो...उसका क्या .खैर,एक भाव है..बस.
      जीना तो है ही ..खुश भी रहना ही है.

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  2. उलाहना देने में ही वक्त गुजर गया..
    और जो अपना हो सकता था वो
    एकदम से पराया हो गया...
    एकदम सच्ची बात..
    :-)

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    1. जहां कोई और है वहाँ वो हो सकता था....हैं ना ?

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  3. सामने हाथ बढाने की देर थी
    तू मेरा हो सकता था .
    ज़रा सी कोशिश,थोड़ी सी हिम्मत से
    सब बदल सकता था.

    ....सच, लेकिन अब पीछे मुड़कर देखने से क्या फायदा...बहुत भावपूर्ण प्रस्तुति..

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    1. पीछे मुड के देखना भी नहीं चाहिए....हमेशा आगे देखना चाहिए.
      पसंद करने के लिए,धन्यवाद!

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  4. :)) ....बस और कुछ नहीं ...

    आज जो सबसे बड़ा दुःख है
    वो सबसे बड़ा सुख हो सकता था ....
    कुछ अपनापन सा लगा इन पंक्तियों में ..

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टिप्पणिओं के इंतज़ार में ..................

सुराग.....

मेरी राह के हमसफ़र ....

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