तुम नाराज़ हो...
जब तक चाहो
नाराज़ हो लेना
पर,तुम
बस मेरी एक बात सुनना
चुप मत होना
नाराज़ हो
नाराज़गी जताओ
कहो सुनो
कुछ बोलो
जी भर चिल्लाओ.
चीख लो ..
जो मन में है
उसे कह जाओ
बस ...
अंदर ही अंदर मत घुटना
चुप मत होना .
मुझे सब है मंजूर
पर चुप्पी गवारा नहीं
तुम बोलते रहते हो
एक सुकून सा रहता है
जीवन रस बहता रहता है
वरना
जीवन जीना भारी ..
बस ,जैसे
मरने की तैयारी
ज़िंदगी तेरी चुप्पी से हारी .
ज़िन्दगी एक किताब सी है,जिसमें ढेरों किस्से-कहानियां हैं ............. इस किताब के कुछ पन्ने आंसुओं से भीगे हैं तो कुछ में,ख़ुशी मुस्कुराती है. ............प्यार है,गुस्सा है ,रूठना-मनाना है ,सुख-दुःख हैं,ख्वाब हैं,हकीकत भी है ...............हम सबके जीवन की किताब के पन्नों पर लिखी कुछ अनछुई इबारतों को पढने और अनकहे पहलुओं को समझने की एक कोशिश है ...............ज़िन्दगीनामा
Monday, May 27, 2013
Sunday, May 12, 2013
उसने चूमा मुझे ...........
उसने चूमा मुझे
एक कली सी खिलने लगी
मेरे अंदर...
उस कली से फूल बनने के इंतज़ार में हूँ,मैं .
उसने चूमा मुझे
एक खुमारी सी चढ़ने लगी
मुझ पर...
उस खुमारी के नशा बनने के इंतज़ार में हूँ ,मैं .
उसने चूमा मुझे
कितने रंग आ गए
मन के आकाश पर ...
उन रंगों से इन्द्रधनुष बनने के इंतज़ार में हूँ,मैं .
उसने चूमा मुझे
एक बूंद सी रिसने लगी प्यार की
मेरे भीतर ...
उस बूंद से सागर बनने के इंतज़ार में हूँ,मैं
उसने चूमा मुझे
एक चिंगारी सी सुलगने लगी
मेरे बाहर-अंदर ...
उस चिंगारी के आग बनने के इंतज़ार में हूँ,मैं
अब...इंतज़ार में हूँ मैं ......बस .
Monday, May 6, 2013
पता नहीं कब..?
कब जीना छोड़ दिया
कुछ याद नहीं पड़ता.
शुरुआती दौर में
ऐसा न था .
धीरे धीरे न जाने कब और क्यूँ
खुद को बदलती रही
सबकी मर्ज़ी से ढलती रही
सबने जैसा कहा
मैंने वैसा किया
सबको राजी रखने की
कोशिश मैं करती रही
मेरे आगे दूसरों ने
अपनी मर्ज़ी की लकीरें खींचीं
पता नहीं कब
वो लकीरों का जाल
न लांघें जाने वाली
दीवारों में बदल गया
सबके लिए करते हुए
मेरा मन कहीं मर गया
अब...
अपने में खुद मैं नहीं शेष
मुझे अपने ढूंढे नहीं मिलते अवशेष
हर मोड पर मिल जायेंगी
मेरी जैसी कई यहाँ
जिनका वजूद है उन लकीरों के सहारे
उबरना खुद है उन्हें अपने लिए
ज़िंदा नहीं रहना है केवल
जीना भी है अपने लिए .
Wednesday, May 1, 2013
मजदूर दिवस
कुछ यूँ करते हैं कि
दीवारें जो उठ जाती हैं धीरे धीरे
...दिलों के बीच ...
चलते हैं साथ
उन दीवारों के पास
और जल्दी जल्दी
उन दीवारों को
हम मिल कर
आज गिराते हैं .
चलो......
मजदूर दिवस मनाते हैं .
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