थक चली हूँ
खुद के मन की खिन्नता से .सोचती हूँ कि क्या होता है
क्यूँ होता है
जिसकी वजह से
कुछ यूँ होता है
कि हम इतने निर्मम हो जाते हैं
अपने लिए
अपनों के लिए.
कैसे और क्यूँ इतना क्रूर
कि प्यार को ठुकरा देते हैं
दूसरे की हर उम्मीद को
बेवजह धत्ता बता देते हैं
सब कुछ ठीक होते हुए भी
कहीं से कमियाँ ढूँढ़ लेते हैं
दूसरों की कुछ कमजोरियों से
अपनी ताक़त खींच लेते हैं .
हरेक बात में मन मुताबिक़
खामियां खोज लेते हैं
किसी को दिख न जाएँ दुःख
इसलिए आंसू खुद पोंछ लेते हैं .
क्यूँ ????
दूर होने लगते हैं मजबूर होने लगते हैं
गलतफहमियों को सेने लगते हैं
बीच में फासले को जन्म देने लगते हैं .
मुझे नहीं पता क्या नहीं है
पर कुछ है जो पहले सा नहीं है
कहीं एक खालीपन भरा सा है
कुछ है जो दिलों में जमा सा है .
लग रहा है कि बाहर आना है इस सबसे
वरना अवसाद घिरना तो तय है अभी से
इस सब को पीछे छोड़ना है ,तो
तेरे मेरे साथ के अलावा
मुझे चाहिए तन्हाई
खूब ढेर सारा वक़्त
कुछ गुस्ताखियाँ
कुछ माफियाँ
एक रोने का सेशन
जिसमें घुल जाएँ
पिछली शिकायतें और सारी टेंशन .
चलो,फिर से
कोशिश करें एक बार
पुरानी बीती बातों पे मिट्टी डाल
बाहर आ जाएँ
पिछ्ला कहा- सुना भूल -भाल .