ज़िन्दगी एक किताब सी है,जिसमें ढेरों किस्से-कहानियां हैं ............. इस किताब के कुछ पन्ने आंसुओं से भीगे हैं तो कुछ में,ख़ुशी मुस्कुराती है. ............प्यार है,गुस्सा है ,रूठना-मनाना है ,सुख-दुःख हैं,ख्वाब हैं,हकीकत भी है ...............हम सबके जीवन की किताब के पन्नों पर लिखी कुछ अनछुई इबारतों को पढने और अनकहे पहलुओं को समझने की एक कोशिश है ...............ज़िन्दगीनामा
आपके ब्लॉग पर पहली बार आना हुआ.बहुत प्रसन्नता मिली आपके कवि हृदय को आपकी कविता के माध्यम से जानकर.
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर भी आप आयें.हार्दिक स्वागत है आपका.
निधि .. निहायत आला दर्जे की रचना है.. बहुत कम अल्फाजो में आपने जज्बातों को उभारा है ... चाय पर क्या राय दूं ... बहुत कड़क है...
ReplyDelete...
बस गया है 'ज़हन-ओ-दिल' पर कब्ज़ा करके
एक शाम आया था कोई मेहमान बनकर
excllnt piece nidhu.........yaaden yaad aati hain........spcly chai ki pyaali ke saath...dil ko kahin chho gaya..........addbhut baht sunder.....ehsaas.:)))<3
ReplyDeleteराकेशजी..............आप पहली बार ब्लॉग पर औए इस हेतु आप का आभार...आप को प्रसन्नता हुई ये जानकर मुझे अच्छा लगा......
ReplyDeleteअमित........बस गया है 'ज़हन-ओ-दिल' पर कब्ज़ा करके
ReplyDeleteएक शाम आया था कोई मेहमान बनकर ............क्या बात है!थैंक्स कि आपको रचना पसंद आई और इसे आपने अपने शेर से नवाजा .
डिम्पल.......स्वागतम!!!पहली बार मेरे ब्लॉग पर आपने दर्शन दिए.......इसके लिए शुक्रिया ..........रचना आपके दिल को छू गयी ये काफी है मेरे लिए
ReplyDelete@ निधि ......... जाने क्यों आज ये पढ़ कर अमृता प्रीतम की ' रसीदी टिकट ' याद आ गयी !..........बकौल अमृता........" लाहौर में जब साहिर मुझसे मिलने आता था तो मेरी ही ख़ामोशी में से निकला हुआ ख़ामोशी का एक टुकड़ा कुर्सी पर बैठता था और चला जाता था ...वह चुपचाप सिर्फ़ सिगेरेट पीता रहता था , कोई आधा सिगेरेट पीकर राखदानी में बुझा देता था , फिर नया सिगेरेट सुलगा लेता था ! उसके जाने के बाद केवल सिगेरेटों के बड़े बड़े टुकड़े कमरे में रह जाते थे !.....कभी.....एक बार उसके हाथ को छूना चाहती थी.....उसके जाने के बाद , में उसके छोड़े हुए सिगेरेटों के टुकड़ों को संभालकर अलमारी में रख लेती , और फिर एक एक टुकड़े को अकेले बैठ कर जलाती थी , और जब उँगलियों के बीच से पकड़ती थी ...तो लगता था , जैसे उसका हाथ छू रही हूँ ! "
ReplyDeleteख़ामोशियों की.....अनव्यक्त उद्गारों की......अनकही बातों की ये पीड़ा.....ये कुंठा ....ये त्रासदी .....बहुतों ने पहले भी झेली है !...........इस यंत्रणा को नारी ही बार बार जीती आयी है....क्योंकि वो भावुक है......कोमल ह्रदय है......संवेदनशील है.......वो संबंधो को सम्पूर्ण निष्ठा से जीती है......भावना में भी...और उद्वेग में भी !!!.......वो पल दो पल के संयोग में भी जीवन का पूरा मर्म गूंथ लेती है ! ......और वहीं पुरुष निर्लिप्त.....निर्विचार....निःसंग.....अपनी ही उधेड़बुन में निमग्न ...उसकी हर कामना को अनदेखा कर चला जाता है......अपने व्यस्त जीवन में.....फिर से रम जाता है !!!.......और वो देखती रह जाती है....... चाय के प्याले पर उसके होठों के निशान..........और मन के कोरे कागज़ पर उसके अमिट हस्ताक्षर !!!.......
बहुत ही सुंदरकृति !.....मानवीय संवेदनाओं का मार्मिक चित्रण !!.......नारी मन की अनुभूतियों का अद्भुत विश्लेषण !!!........यकीनन सराहनीय !!!
बहुत अच्छी रचना| धन्यवाद|
ReplyDeleteपाटली जी...........शुक्रिया!!!!!!!
ReplyDeleteअर्ची दी.........आपकी प्रतिक्रया पढ़ कर एक चीज़ बहुत बढ़िया हुई कि मैंने फिर से रसीदी टिकट निकाली और आद्योप्रांत पढ़ डाली......
ReplyDeleteदी,आपको मेरी रचना पढ़ कर अमृता प्रीतम ज\सरीखी लेखिका का लिखा याद आया .......इससे बड़ा सौभाग्या मेरे लिए क्या होगा ...
शायद ,पुरुष इतना यथार्थवादी होता है कि इन छोटी बातों से जुडी छोटी छोटी भावनाओं और यादों के लिए न उसके पास वक्त होता है और ना ही कोई इच्छा ......वो एक-एक पल जीने में ज्यादा यकीन रखता है बनिस्पत उन पलों की यादों को सहेजने के ....नारी कि संवेदना ,भावनात्मकता ,जुड़ाव उसे निर्विकार नहीं होने देते ..
दी,रचना को आपने पसंद किया......समय निकाला इतनी सुन्दर टिप्पणी के लिए......मैं आभारी हूँ
waah !!sundar ewm bhawpurn prastuti NIDHI!!
ReplyDeleteनिधि: बड़े संक्षिप्त शब्दों में तुमने दिल का उदगार किया है, जो अदभुत ही नहीं वरन बहुत से एहसास कराता है.....उस पर अर्चना दी द्वारा अमृता प्रीतम की रसीदी टिकेट का वर्णन तुम्हारे इस ब्लॉग को चार चाँद लगा रहा है...बहुत ही सराहनीय है.......!!!
ReplyDeleteMS............आपको मेरा ये प्रयास अच्छा लगा ,शुक्रिया!अर्ची दी कि टिप्पणी ने तो वाकई मेरी इस पोस्ट को चार चाँद लगा दिए हैं .
ReplyDeleteसरोज जी..........आपका धन्यवाद की आप ब्लॉग पर आई ,आपने रचना को पढ़ा ,समझा एवं सराहा .
ReplyDelete@Archanaji.. Really awesome i dont noe much about dis literary field and never read "Amrita" but ur words touchs me and my feelings. now i also wanna read 'Raseedi ticket'.. U inspire me alot..
ReplyDelete@Nidhiji.. U r also too gud..
चाय तो मैंने बहुत देखी पर ऐसे खली प्याली जिसमे इतना अधिक प्यार और एहसास भरा हो आज पहली बार चखी है...
ReplyDeleteये एक सामान्य रचना हो ही नहीं सकती, कुछ लोग इतनी गहरायीओं में जा सकते हैं और बड़े गर्व के साथ कहता हूँ कि मैं ऐसी ही एक महान लेखिका को जानता हूँ !
आपसे सब से अनुमति चाहूँगा कुछ प्रस्तुत करने की...
ReplyDeleteउनका वो कॉफी के लिए जिद करना,
उनका वो कॉफी पहले मुझे ही पिलाना,
उनका वो कॉफी की पहली चुस्की लेना,
वो चुस्की की मीठी सी आवाज़ निकालना,
उनका वो कॉफी पीने कि अदा दिखाना,
उनका वो हमे काफी पीना सीखाना,
उनके वो कप छूते होठों को देखना,
उनके वो कप पकड़े हाथों को देखना,
उनका वो दो घूँट कॉफी के लिए झगडना,
अपनी कॉफी का दो घूँट मेरे लिए छोडना,
उनका वो खाली कप हाथ में पकडे रहना,
मेरा उस कॉफी कप की किस्मत से जलना,
उनका वो मेरे चिढे चेहरे को देख मुस्कुराना,
और कप को छोड़ मेरे हाथ को थामना,
उनकी वो कॉफी और उनका वो अंदाज़,
बहुत याद आता है, बहुत याद आता है,
वो दृश्य आँखों के सामने आके रुला जाता है,
वो समय बहुत याद आता है, याद आता है !!!
शुक्रिया.............आदित्या!तुम्हारी इस खूबसूरत टिप्पणी के लिए ......और अनुमति की तुम्हें कोई ज़रूरत नहीं है...........तुम जो चाहे लिख सकते हो
ReplyDeleteस्वरा..........आपको अर्ची दी कि टिप्पणी पसंद आई उनकी एवं मेरी और से धन्यवाद.आप रसीदी टिकट ज़रूर पढियेगा.....मन प्रसन्न हो जाएगा.मेरी रचना को पढ़ने के लिए आपने वक्त निकाला उसके लिए आपकी आभारी हूँ
ReplyDeleteDr.Nidhi ji,
ReplyDeleteThanks for your valuable response to my comment.But,you have still not visited my blog.please,find some time and obilige me.I am waiting.
वटवृक्ष से होते हुए आपके ब्लॉग पर पहुंची ....अच्छा लगा आपसे परिचय ...
ReplyDeleteयह निशाँ भी ऐसे पड़ जाते हैं जो छूटते नहीं ...
एक गुज़ारिश ...
कृपया टिप्पणी बॉक्स से वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें ...टिप्पणीकर्ता को सरलता होगी ...
वर्ड वेरिफिकेशन हटाने के लिए
डैशबोर्ड > सेटिंग्स > कमेंट्स > वर्ड वेरिफिकेशन को नो करें ..सेव करें ..बस हो गया .
संगीता जी...अच्छा लगा आपका वट वृक्ष से होकर यहाँ तक आना ......आपकी सलाह मैंने मान ली है .....एक चीज़ आपने अच्छी करी कि मुझे तरीका भी बता दिया अन्यथा मैं आपका सुझाव चाह कर भी मान नहीं पाती .......शुक्रिया.
ReplyDelete..........दिल को छू लेने वाली प्रस्तुती
ReplyDeleteआप बहुत अच्छा लिखती हैं...वाकई.... आशा हैं आपसे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा....!!
संजय जी......किसी का भी लिखा हो तभी सार्थक है जब लोग उसे पढ़ें और पसंद करें.......आपके द्वारा की गयी प्रशंसा हेतु धन्यवाद .
ReplyDeleteसिर्फ दाग ही रह जाते हैं....
ReplyDeleteआहटें रह जाती हैं....
अंदेशे रह जाते हैं....
उम्मीदें रह जाती हैं...
अपनी तमाम निराशाओं के साथ....।
समय और लोग तो गुज़र ही जाते हैं....
दी...मुझे लगता है की कुछ लम्हें..कुछ लोग ...कहीं दिल के किसी कोने में ठहर जाते हैं ..ताउम्र..वैसे ही रहते हैं ..वहीँ रहते हैं...समय का उनपे...उनपे समय का कोई असर नहीं होता
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