तुम में एक खूबी है................
पूछोगे नहीं,क्या?
या आश्चर्य से कहोगे नहीं.............कि केवल एक?!
एक बात पूछूँ ,तुमसे..........
कि
तुम यह कैसे कर पाते हो कि ..
जब तुमसे गलती हो जाती है
तब इतनी ढिठाई से .....
तर्क पे तर्क करते रहते हो
बिना शर्मसार हुए .
तुम तब तक यह सब करते हो
जब तक मुझे एहसास नहीं करा देते
कि
जो गलती तुमने करी
उसका कारण भी मैं ही हूँ .
जबकि ,मुझसे कभी कोई भूल हो जाती है
तो , कई दिन तक मुझे
अपराध बोध सालता रहता है .
मैं,
अपनी-तुम्हारी गलतियों का
बोझ ढो-ढो कर............
थक गयी हूँ .
अपनी भूल की पीड़ा ,
तुम्हारी गलती का दंश ,
दोनों,अकेले झेलती हूँ .
कभी तुम्हारा फूला हुआ मुंह ,
कभी तुम्हारा रूखा व्यवहार ,
तो कभी तुम्हारा अबोला सहकर.
बताओ ना.....................
कैसे कर लेते हो तुम यह सब .
(प्रकाशित)
पूछोगे नहीं,क्या?
या आश्चर्य से कहोगे नहीं.............कि केवल एक?!
एक बात पूछूँ ,तुमसे..........
कि
तुम यह कैसे कर पाते हो कि ..
जब तुमसे गलती हो जाती है
तब इतनी ढिठाई से .....
तर्क पे तर्क करते रहते हो
बिना शर्मसार हुए .
तुम तब तक यह सब करते हो
जब तक मुझे एहसास नहीं करा देते
कि
जो गलती तुमने करी
उसका कारण भी मैं ही हूँ .
जबकि ,मुझसे कभी कोई भूल हो जाती है
तो , कई दिन तक मुझे
अपराध बोध सालता रहता है .
मैं,
अपनी-तुम्हारी गलतियों का
बोझ ढो-ढो कर............
थक गयी हूँ .
अपनी भूल की पीड़ा ,
तुम्हारी गलती का दंश ,
दोनों,अकेले झेलती हूँ .
कभी तुम्हारा फूला हुआ मुंह ,
कभी तुम्हारा रूखा व्यवहार ,
तो कभी तुम्हारा अबोला सहकर.
बताओ ना.....................
कैसे कर लेते हो तुम यह सब .
(प्रकाशित)
निधि जी, रोज की दिनचर्या और जिन्दगी का सच,
ReplyDeleteअब अगला सवाल आपसे, इस सच को इतना सुन्दर शब्दों की माला में कैसे पिरो लेती हो?
बहुत सुन्दर लिखा आपने...
yah tark to shashwat satya hai... vatvriksh ke liye mujhe mail karen parichay tasweer blog link ke saath
ReplyDeleteविनय जी..................आपका तहे दिल से शुक्रिया करती हूँ कि आपने पढ़ा और सराहा.........आपने जो प्रश्न पूछा है उसका जवाब तो मुझे भी नहीं पता .....बस ,जो मन में आ जाता है लिख देती हूँ और जब आप लोग उसे पढते, पसंद करते हैं तो वो अपने आप अच्छा हो जाता है ........
ReplyDeleteरश्मिप्रभाजी.............ठीक कहा आपने ,शाश्वत सच है कि हम सब अपने किसी न किसी रिश्ते में कभी न कभी ऐसा ज़रूर महसूस करते हैं कि हमारी गलती न होते हुए भी हम कसूरवार बना दिए गए हैं........
ReplyDeleteWonderful...Too good..such a complex mind frame and thought..and you conveyed it so beautifully....
ReplyDeleteनिधि ...इस बेहतरीन अभिव्यक्ति के लिए आपको अनेको-अनेक बधाई .... आपने दर्द को बेहद खूबसूरती से समेटा है ....
ReplyDelete........................
सही खुद को और मुझको गलत साबित कर देगा
इस फन उसे महारत हासिल है ......
@Prafulla.................thanks!it's your first visit on my blog and i'm really overwhelmed by the way you have appreciated my work.
ReplyDeleteअमित..............आपके इस खूबसूरत शेर ने मेरी रचना को और कायदे से समझा दिया है..............शुक्रिया!बधाई हेतु धन्यवाद.
ReplyDelete@ निधि ....... हृदयस्पर्शी !......मार्मिक !!.....अनुपम !!!.....क्या कहूँ , जिस तरह मानवीय भावनाओं का अद्भुत विश्लेषण तुम कर लेती हो ....बहुत प्रबुद्ध विद्वानों को भी कर सकने में अक्षम पाया है !!!.....अनुभूतियों के कोमल रेशों को कैसे सहज ही सुलझा कर रख देती हो ....कि हर तंतु साफ़ स्पंदित करता हुआ दिखाई देता है !.....सच में ' संबंधों ' के सभी ' बंध ' ....' सम ' कहाँ होते हैं !!! ........रिश्तों का एक सिरा, कई बार दूसरे सिरे का भी सारा भार स्वयं उठा कर चलता है.......होता है यूँ भी कि एक के समझौतों कि धुरि पर ही स्नेह का सारा आधार होता है !!!.....स्वभावतः नारी ही वो धुरि बनती है......उसकी कोमलता ....सरलता.....भावुकता .... ममत्व.....उसका समर्पण .....ही उसकी हर हार का ...हर समझौते का कारण बन जाता है !.....और पुरुष अपनी हर त्रुटि को अपने अहम् की आड़ में ढक लेता है !......नारी झुकती है ...तो वो दंभ से और उग्र होता है !......उसके अधिकार के पीछे कहीं न कहीं नारी की उत्सर्ग की अदम्य लालसा भी होती है !!!....... इसे लिखते हुए प्रसाद की ' कामायनी ' याद आ रही है ...
ReplyDelete" मैं जभी तोलने का करती उपचार स्वयं तुल जाती हूँ ;
भुज लता फँसा कर नर तरु से झूले सी झोंके खाती हूँ !
इस अर्पण में कुछ और नहीं केवल उत्सर्ग छलकता है ;
मैं दे दूं और न फिर कुछ लूं इतना ही सरल झलकता है !......
नारी तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास रजत नाग पग तल में ;
पीयूष स्त्रोत सी बहा करो जीवन के सुंदर समतल में !!
आँसू से भीगे अंचल पर मन का सब कुछ रखना होगा ;
तुमको अपनी स्मित रेखा से ये संधि - पत्र लिखना होगा !!! "
bahut hi sundar rachna hai...
ReplyDeleteSach ko itni khoobsoorti se bayan kiya hai...
Dil ki baat ko samjh sakte hain....
aagya chahunga kuch kahne ki, maaf kariyega...
Ek pagal dil ne likha hai..
हो सकता है की हर बार गलती मेरी ही होती हो,
हर बार कसूर मेरा ही रहा होगा गर तुम कहते हो,
हाँ मैंने तुमपे हर बार दोषारोपण किया है,
हाँ मैंने तुम्हारे दिल बहुत बार आघार किया है,
हाँ तुमने हम दोनों की गलतियों का बोझ अकेले ही उठाया,
इस रिश्ते को तुमने ही इतनी खूबसूरती से सजाया,
इस रिश्ते में प्यार भी तुमसे ही, मुझसे तो नहीं,
पर मैं इतना कठोर भी नहीं, इतना बेशर्म भी नहीं !
बस मैं अँधा हूँ, थोडा नादान हूँ, थोडा डरपोक भी हूँ,
थोडा पागल हूँ, पर जो हूँ तुम्हारा हूँ, जैसा भी हूँ !
बेहद खूबसूरत रचना है...ज़िन्दगी की छोटी छोटी घटनाओं को कितने अदभुत तरीके से तुम अपनी लेखनी में उतार देती हो .....यह आम जीवन से जुडी हुई घटना का एहसास दिलाता है ....यह अक्सर होता है के खुद की गलती का कम लगती है वरन दूसरे द्वारा की गयी गलती बड़ी लगती है....
ReplyDeleteआदित्य.................बहुत बहुत शुक्रिया...........तुम पूछोगे किस लिए...........तो वो इसलिए कि तुमने इतनी खूबसूरत टिप्पणी मेरे ब्लॉग पर लिखी........
ReplyDeleteथोडा पागल हूँ, पर जो हूँ तुम्हारा हूँ, जैसा भी हूँ ! क्या बात है ........प्यार तो ऐसा ही होना चाहिए,न..........
MS.............आपने रचना को सराहा इसके लिए धन्यवाद.उम्मीद करती हूँ कि आप यूँ ही आगे भी मेरी अच्छाईयों के साथ-साथ मेरी कमियों के विषय में भी मुझे बताते रहेंगे .
ReplyDeleteJi .. kaise likh leti ho aap itna accha ... ?
ReplyDeletekucch samay tak rukh sa gaya hun aapki rachna ke sath .. wonderful ..
सतीशजी............आपने पढ़ा ,सराहा इस हेतु धन्यवाद........रचना ने आपको अपने साथ बाँध लिया .ये जान कर प्रसन्नता हुई............
ReplyDeleteओह! प्रश्न अच्छा है. आपके भावुक कोमल ह्रदय को नमन.
ReplyDeleteराकेश जी................आपका तहे दिल से शुक्रिया !!!
ReplyDeleteअर्ची दी...........आपकी इस टिपण्णी के ऊपर मैं क्या कहूँ.....कोई शब्द ही नहीं मिल रहा जिससे मैं आभार व्यक्त आकर सकूं.हाँ,आपकी इस टिपण्णी के कारण ही अगली रचना मैंने अपने ब्लॉग पर पोस्ट करी है.........संबंधों के बंध....ये कविता,आपके नाम संबंधों के" बंध ".....
ReplyDeleteसम कहाँ होते हैं???????????
हरदम, यही देखा है...........
जाना,समझा है........
कोई भी,कैसा भी रिश्ता हो
दो लोगों के बीच;
दोनों,
एक दूसरे को बराबर का प्यार नहीं करते
एक कुछ ज़्यादा
दूजा थोड़ा कम.
होता यूँ हैं कि.......
जो शख्स कम प्यार करता है
रिश्ते पे उसकी पकड़ ज्यादा होती है
वो जैसे चाहे,जब चाहे
अपने मन की करवा लेता है
प्यार कि दुहाई देकर,
क्यूँ कि
कम चाहने वाला जानता है दूजे कि कमज़ोर नब्ज़ .
उसकी कम चाहत उसे मजबूती देती है
रिश्ते को तोड़ कर दूर जाने की ....
कुछ नया तलाशने की ............
जबकि जो ज्यादा प्यार करता है
प्यार ही उसकी कमजोरी बन जाता है.
वो जानता है कि वो इस्तेमाल हो रहा है
फिर भी प्यार का एहसास उसे खुश रखता है.
इस सबके बाद भी
ता उम्र वो उसी रिश्ते से जुड़ा रहता है
वहीँ रुका रहता है
जहां,
दूसरा शख्स उसे पीछे छोड़
कब का आगे बढ़ चुका होता है
क्यूंकि ,जिसने कम चाहा वो आज भी ........
अपनी यादों ,बातों से उसपर अपना अधिकार रखता है
और जो चाहता है वो सब देकर भी
अकेला ही रह जाता है ......
यही तो तुमने भी किया
प्यार में,
हमेशा अपने अधिकार मांगे
कभी अपने कर्त्तव्य के बारे में नहीं सोचा.
ठीक ही तो है ............
संबंधों के बंध अक्सर विषम ही होते हैं.......
है ना??????/
यह कैसे कर पाते हो कि ..
ReplyDeleteजब तुमसे गलती हो जाती है
तब इतनी ढिठाई से .....
तर्क पे तर्क करते रहते हो
बिना शर्मसार हुए .
तुम तब तक यह सब करते हो
जब तक मुझे एहसास नहीं करा देते
कि
जो गलती तुमने करी
उसका कारण भी मैं ही हूँ .
जबकि ,मुझसे कभी कोई भूल हो जाती है
तो , कई दिन तक मुझे
अपराध बोध सालता रहता है .
मैं,
अपनी-तुम्हारी गलतियों का
बोझ ढो-ढो कर............
थक गयी हूँ .
waaaaah !
द्वंदों का इतना सूक्ष्म विश्लेषण तो कोई मनोविज्ञान का महारथी ही कर सकता है ... और फिर उसका इतना सुन्दर चित्रण केवल आप ही कर सकते हैं निधि जी ...वाकई ..एक कसक सी हुई कविता पढ़कर ..लगा की एक बार अपने तरफ भी देखूं कहीं ...मेरे आसपास भी तो ऐसा हा कुछ घटित नही हो रहा है
आपका पुनः आभार निधि जी!
आनंद जी...........मैं मनोविज्ञान की महारथी नहीं हूँ पर इतना ज़रूर है कि अपने आस-पास होती हुई किसी भी चीज़ से अलग नहीं रह पाती हूँ......मेरे मन का जुड़ाव हरेक से जल्द ही हो जाता है फिर उसकी तकलीफ,परेशानी ,खुशी,हँसी सबसे खुद को विलग नहीं कर पाती हूँ.........वह सब कहीं अंदर इकट्ठा होता रहता है और फिर क दिन कलम का सहारा लेकर कागज़ पर उतर आता है.........आपका शुक्रिया कि आपने इतना डूब कर रचना को पढ़ा.......मुझे ये जान कर अच्छा लगा की आपको कविता पढ़ आकर अपने आस-पास ये देखने का विचार आया कि कहीं कोई ये पीड़ा सह कर जी तो नहीं रहा है
ReplyDeleteआपका ब्लॉग पसंद आया....इस उम्मीद में की आगे भी ऐसे ही रचनाये पड़ने को मिलेंगी......आपको फॉलो कर रहा हूँ |
ReplyDeleteसंजय जी.........मैं आपकी उम्मीद पर खरी उतारूं ऐसी मेरी कोशिश रहेगी........आप अपना सहयोग यानि कि मेरी कमियों और
ReplyDeleteअच्छाइयों को बताते रहेगे .....इतनी आशा मैं भी आपसे रखती हूँ
वाह निधि जी , आपने अपनी इस कविता से निश्चित रूप से पुरुषों को अंतर्मन में झाँकने पर मजबूर कर दिया है.... बहुत ही सुंदर रचना.... आशा है कि आप भविष्य में और भी इससे सुंदर रचनाओं से हमें प्रफुल्लित करती रहेंगी.
ReplyDeleteवाह निधि जी वाह ... क्या बात है... मेरे विचार से बहुत से पुरुष इस कविता में अपने आपको ही महसूस कर रहे होंगे ....... ईश्वर आपको और भी सुंदर रचनाओं की प्रेरणा दे......
ReplyDeleteअतुल जी...आपकी दुआएं खुदा कुबूल करे...मैं कोशिश करूंगी कि ऐसा लिखती रहूँ जिसे लोग पसंद तो करे ही साथ साथ उसे अपना सा महसूस करे..आपका आभार!!
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन का ख़ास संस्करण - अवलोकन २०११ के अंतर्गत आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है ब्लॉग बुलेटिन पर - पधारें - और डालें एक नज़र - प्रतिभाओं की कमी नहीं - अवलोकन २०११ (18) - ब्लॉग बुलेटिन
ReplyDeleteअंतर्स्पर्शी... सहजता से गहरे तथ्यों को रेखांकित करती रचना....
ReplyDeleteसादर बधाई...
संजय जी....नवाजिश !!
ReplyDeleteaise bhaavo ko jitna kathin hi utni hi sehzta se baandh liya hai tumne inhe. hatts off.
ReplyDeleteउत्कृष्ट रचना..!!
ReplyDeleteमुझे पता है..तुम्हें बहुत पसंद है ये रचना
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