
ऊन के गोले सी .....
बंधी और व्यवस्थित .
तुम आये,
शैतान बच्चे से ......
सब उलझा के रख दिया .
खेल कर
चले भी गए.............
मैं,
आज भी ढूंढ रही हूँ
बीते बरसों के उलझाव में
कहीं तो कोई सिरा मिले
तो अगले बरसों की पहेली सुलझा लूं
मन में तो आता है
जैसे तुम खेलने के बाद
निर्लिप्त,निर्विकार होकर चले गए
मैं क्यूँ वैसी नहीं हो पाती ?
तेरे जुड़ाव के इस उलझाव को काट कर
क्यूँ नहीं अलग कर पाती हूँ?
शायद, गांठों से डरती हूँ
काट कर कहीं भी ,कभी भी ,किसी से भी .........
गर जुडूगी
तब भी क्या गांठों से बच पाऊँगी??????????????????
निधि जी, बहुत ही सुन्दर रचना है यह आपकी, चुने हुए शब्दों का व्यवस्था पूर्ण इस्तेमाल... सचमुच कमाल का है...
ReplyDeleteविनय जी.........आपका तहे दिल से शुक्रिया!आप लोगों के इन प्रेरणादायी शब्दों के लिए आभार व्यक्त करती हूँ और आशा करती हूँ कि आपके द्वारा मेरी लेखनी में जो विश्वास दिखाया गया है उसे व्यर्थ ना जाने दूं ............
ReplyDeleteHindi Font nahi Hai, Hota to bhi kya fark parta, Typing nahi aati.
ReplyDelete"Once thread broken, Knot is a must to reconnect."
The combination of two words - Broken and Knot is not good..... Otherwise separately they Broken is Start of a New Contruction.
Knot is end of Search and begining of new things in life.
Rajan M.......
राजन .................हिंदी फॉण्ट की ज़रूरत नहीं है और न ही हिंदी टाइपिंग आने की ....यहाँ ब्लॉग पर एक बॉक्स है हिंदी में लिखिए का....उसमें तुम रोमन में लिख कर स्पेस दबाओगे तो शब्द खुद हिंदी में हो जाएगा......खैर ,तुम्हारी इस सारगर्भित,विवेचनात्मक,दार्शनिक टिपण्णी पढ़ कर बड़ी खुशी हुई ......आगे तुम्हारी सलाह को याद रखूंगी
ReplyDeleteनिधि आप हिंदी कविता को रोज नए आयाम दे रही है है ... नित्य आप नई उपमाएं और विषय प्रदान कर रही है... आप के इस प्रयोगों के लिए हिंदी कविता मंच आप का कर्ज़दार रहेगा .. अपनी इस बेहतरीन कविता से अवगत कराने के लिए धन्यवाद ...
ReplyDeleteआपको अच्छा लगा ये नवीन प्रयोग इसके लिए मैं तहे दिल से आपकी शुक्रगुजार हूँ..............अमित.यूँ ही आप जैसे मित्र उत्साह बढाते रहे तो मैं आभारी रहूंगी ......
ReplyDeleteवाह दी..
ReplyDeleteक्या खूब कहा..!!!! अंतर्मन की व्यथा..बखूबी से पिरोई है आपने..!!!
अरे ,प्रियंका..................आनंद आ गया तुम्हारी टिप्पणी देख कर ...............तुम्हें रचना अच्छी लगी यह जान कर मुझे भी खुशी हुई..........
ReplyDeleteनिधि: तुम्हारी कविताओं में दिनो दिन एक नया निखार और एक नयी अनुभूति का अहसास होता है...तुममे अब एक कवियत्री उभरती जा रही है... जीवन भी कुछ इसी ऊन के गोले की तरह है अगर उलझ गया तो सुलझाना मुश्किल है....
ReplyDeleteइस दर्द भरी ज़िन्दगी का सुराग ढूंढता हूँ ,
है अँधेरा बहुत यहाँ एक चिराग ढूंढता हूँ . .
बनाया था तमाशा जिसने ज़िन्दगी को इस तरह ,
के उन मेहेर्बानों का इल्लाज ढूंढता हूँ ..
कोई इन अंधेरों में मेरे दिल की शमा जला दे ,
मैं अपनी बदनसीबी का राज़ ढूंढता हूँ ..
हसरतों का आईना ये पत्थर दिल से टूट गया ,
शीशों के इन टुकडो में अपना आज ढूंढता हूँ …
Nidhi... apka blog dekha .aapki rachnaye achhi hain...saral aur somye hain....apko badhai deti hun.
ReplyDeleteUnn ka gola aur jindagi....ulajhte sulajhte iske jawab...gandhe padte vo pal..jo apna nishan chhod jayen...bahut sunder...
Amit ji a VInay ji se puri tarah sehmat hun..
Mohammad Sahib...bahut khub ...mai apni badnasibi ka raaz dhundta huan ...un mehrbano ka ilaaz dhundta huan...
MS...............आप के द्वारा की गयी तारीफ के यूँ तो मैं काबिल नहीं हूँ पर तब भी इतनी प्रशंसा हेतु धन्यवाद.सच........जिंदगी एक बार उलझे तो उसे सुलझाना या उन उलझनों से निकल पाना बड़ा ही दुष्कर होता है......आपके खूबसूरत शेरो के लिए शुक्रिया!
ReplyDeleteवन्दना.........आपकी बधाई स्वीकार करती हूँ...........मुझे बहुत अच्छा लगा की आपने ब्लॉग पर आकार मेरी रचनाएँ पढ़ी और सराही .........साथ ही साथ अपनी प्रतिक्रया भी मुझ तक पहुंचाई ..आशा करती हूँ की आपका और मेरा साथ यूँ ही बना रहेगा........
ReplyDeletejis tarah tum nirvikaar hote ho, waise main kyun nahi ho pati ...
ReplyDeleteyahi to fark hai , dil tak pahunche ehsaas
kripya rasprabha@gmail.com per sampark karen
ReplyDeleteरश्मि प्रभा जी..................आभार ,कि आप मेरे ब्लॉग पे आयीं .....रचना को पढ़ा एवं सराहा ...........
ReplyDelete@ निधि ......... अंतर्मन की सारी कही अनकही भावनाओं को जितना बखूबी मैंने तुम्हे समझते और विश्लेषण करते हुए पाया है......किसी और को नहीं !!!....रचना तभी अर्थवान होती है जब पाठक की बात ......उसकी पीड़ा......उसकी अव्यक्त व्यथा ......वह अपने कथ्य में प्रतिबिंबित कर सके !!!.....तुम्हारी ' उन का गोला ' पढ़ कर बस यही अनुभूति बार बार हुई....कि ये तो मेरा कथ्य था.....तुम्हारे स्वर में कैसे गूंजा ???......हाँ सच में ! यही त्रासदी है नारी ह्रदय की ......वो जो जीवन को व्यवस्था में बाँधना चाहती है.......हर सम्बन्ध को एक मूर्त रूप देना चाहती है......जो विश्राम चाहती है.....ठीक प्रसाद की श्रद्धा की तरह.....
ReplyDelete" कितनी मीठी अभिलाषाएं उसमें चुपके से रही घूम ;
कितने मंगल के मधुर गान उसके कोनों को रहे चूम !!! "
.... नीड़ की कामना करती है.......आश्रय की लालसा रखती है ........ वही नारी बार बार छली जाती है......अपने ही विश्वास से .....अपने ही सुख के आधार से !!!.......उस पुरुष से........जो एक उदण्ड बालक सा आता है और उसके सहेजी हुई सारी व्यवस्था ....सारी शान्ति .....सारी तटस्थता को क्षण भर में अस्त व्यस्त कर देता है.......उसके ऊन के गोले सी संभाली हुई सारी सरलता को ....उलझा के रख देता है ! ......पुरुष के लिए उन क्षणों का भी कोई अर्थ नहीं होता ... जिन्हें नारी अपने जीवन की सम्पूर्ण सार्थकता मानती है !!!...." चिर मुक्त पुरुष वह कब इतने अवरुद्ध श्वास लेगा निरीह "........खेल कर चले जानेवाला वह दुष्यंत कि तरह भूल भी जाता है कि कोई शकुन्तला उसके लिये सांस रोके बैठी है !!!...........युगों युगों से नारी उन क्षणों के बोझ को जीती आयी है !.........जो भावनाओं के सारे तंतु उलझ जाते हैं........वह अभागी.....उन्हीको सुलझाने में जुटी रह जाती है .....कुंठित....उपेक्षित....अप्रतिभ !!!.....स्नेह के ये बन्ध उसकी आत्मा को कस लेते हैं.....उसके लिए फिर.....मुक्ति का कोई उपाय भी नहीं !!!
निधि जी ,
ReplyDeleteबहुत सरल शब्दों में अंतर्मन को जस का तस लिख डाला है आपने..शायद हर नारी के मन की बात है यह इसलिए इतनी अपनी सी लगी....यही तो अंतर है पुरुष और नारी के प्रेम में....
सुन्दर अभिव्यक्ति
मुदिता जी ............जैसा आपने कहा कि स्त्री और पुरुष के प्रेम मैं यही अंतर है....तो मैं इस बात से सहमत हूँ पर मैं इसे पुरुष का दोष नहीं मानती .........ये मूलतः दोनों का स्वाभावगत अंतर है जो प्रकृति प्रदत्त है ...जो प्रेम में भी परिलक्षित होता है....
ReplyDeleteआपको रचना अच्छी लगी......इस हेतु धन्यवाद
अर्ची दी......ये सत्य है किस्त्री जब प्रेम करती है तो सम्पूर्णता के साथ.......इसी लिए वह पुरुष से भी सर्वस्व की ही कामना करती है..पर ऐसा कहाँ संभव होता है......पुरुष के लिए प्रेम जब एक पहलू मात्र है तो वह उस को दरकिनार कर अन्य पहलुओं कि खोज में जाने में भी हिचकता नहीं है.......जबकि स्त्री की धुरी ,अस्तित्व सब प्रेम ही है.......उस प्रेम के चारों और ही सब है... तो ,उसके लिए इस चक्कर से निकलना मुश्किल होता है .
ReplyDeleteदी,आप जब भी अपनी प्रतिक्रया व्यक्त करती हैं जाने क्यूँ हर बार यही लगता है कि जो मैं कहना चाह रही थी वो अगर किसी को समझ नहीं आया होगा तो आपकी टिप्पणी पढ़ कर उसे वो भी समझ आ जाएगा.......
आज जब दोबारा पढ़ा तो आपने कनुप्रिया की याद दिला दी..
ReplyDeleteसुंदर भाव..!!
बहुत बड़ा कोम्प्लिमेंट है...ये.
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