Thursday, September 13, 2012

तुम पागल हो




कितना कुछ कहना था
कब से रुका हुआ था
अंदर दबा हुआ सा था
मन पे एक बोझा था
अकेले सहना मुश्किल था .
अब.....
सब बह गया है..
उतर गया है सब.

पाँव ज़मीन पे नहीं रहते
दिल उड़ने को करता है
तुमसे मिलने को करता है
सब कुछ तुम्हें दे कर
तुम्हें पा लेने को करता है
अजीब सा हो गया है कुछ
हर घडी न जाने क्या-क्या
ये जी करता है .
कुछ समझ नही आ रहा
किस राह जाने की
तैयारी है इसकी .

जुडना...
तुम्हारे हर सुख ...हर दुःख से
सुनना ...
बातें तुम्हारी कही-अनकही सी
रहना...
तुम्हारे ख़्वाब और ख्यालों में
चाहना...
तुम्हारा प्यार...तुम्हारा विश्वास
मांगना...
तुम्हारा साथ दिन रात
सच कहूँ ,तो.......

रास आ रहा है ये पागलपन मुझे
कि तुम्हारे मुंह से
"तुम पागल हो "सुनना अच्छा लगता है

18 comments:

  1. बहुत खूबसूरत अहसास...

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  2. प्रेम प्रेम ...हर रचना एक समर्पण है,मनुहार है,रूठना मनाना है

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  3. मासूमियत का भाव लिए ... प्रेम की चुहल को भोले पण से अभिव्यक्त किया है ..

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    1. बात आप तक पहुंची....नवाजिश .

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  4. भाषा सरल,सहज यह कविता,
    भावाव्यक्ति है अति सुन्दर।
    यह सच है सबके यौवन में,
    ऐसी कविता सबके अन्दर।

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    1. बहुत खूबसूरती से आपने अपनी पसंद ज़ाहिर की....आभार!

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  5. कोई ऐसा राजदार मिल जाय..तो क्या कहना..!!

    इक-इक शब्द प्रगाढ़ता के रस में डूबा हुआ..!!

    बेहद खूबसूरत..!!

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    1. हम्म...खुशनसीब होते हैं वो लोग जिनके पास ऐसे राजदार होते हैं

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  6. सुन्दर...सुन्दर...सुन्दर....!!

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    1. थैंक्स...थैंक्स...थैंक्स!

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  7. क्या उल्टा हो तो ज्यादा अच्छा नहीं होगा-- सुनने की जगह अगर कहने को मिल जाये "तुम पागल हो"?

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    1. मझे कहना -सुनना दोनों चाहिए...लालची हूँ न.

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टिप्पणिओं के इंतज़ार में ..................

सुराग.....

मेरी राह के हमसफ़र ....

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