ज़िन्दगी एक किताब सी है,जिसमें ढेरों किस्से-कहानियां हैं ............. इस किताब के कुछ पन्ने आंसुओं से भीगे हैं तो कुछ में,ख़ुशी मुस्कुराती है. ............प्यार है,गुस्सा है ,रूठना-मनाना है ,सुख-दुःख हैं,ख्वाब हैं,हकीकत भी है ...............हम सबके जीवन की किताब के पन्नों पर लिखी कुछ अनछुई इबारतों को पढने और अनकहे पहलुओं को समझने की एक कोशिश है ...............ज़िन्दगीनामा
Wednesday, November 2, 2011
अहं की दीवार
तुम आश्चर्य करते हो
कि
तुम्हारे इतना कहने-सुनने....
लड़ने-झगड़ने के बाद भी.....
मुझपे कोई फर्क क्यूँ नहीं पड़ता है
प्रेम का रंग फीका क्यूँ नहीं पड़ता है .
क्यूँ मैं कभी कुछ नहीं कहती तुमसे ?
क्यूँ मैं कभी खफा नहीं होती तुमसे ?
किसी दीवार पे कुछ डालो...फेंको
तो चीज़ या आवाज़ लौट के आती है
पर....
मैंने तो तेरे प्यार में
अपने अहं की
सारी दीवारें गिरा दी हैं .
तेरा सब कहा....किया ....
निकल जाता है आर-पार.
प्रेम से परिपूर्ण मेरे इस अस्तित्व में
क्यूंकि ,
बस,प्यार को स्वीकार करने की क्षमता शेष है .
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बेहतरीन कविता।
ReplyDeleteसादर
बहुत सुन्दर प्रस्तुति ...अहम् की दीवार हट जाए तो ज़िंदगी खुशनुमा हो जाये
ReplyDeleteमैंने तो तेरे प्यार में
ReplyDeleteअपने अहं की ..
सारी दीवारें गिरा दी हैं.
pyaar mein aham hota hi nahi
यशवंत...शुक्रिया!!
ReplyDeleteधन्यवाद....संगीता जी .अहं ही अधिकांशतः वह कारण होता है...जो दरारें पैदा करता है
ReplyDeleteरश्मिप्रभा जी ...प्यार में तो आप अपना सर्वस्व ही देते हैं...तो,संपूर्ण दे देने पे अहं कहाँ शेष रहेगा ?
ReplyDeleteअहम की दीवार प्रेम में कहाँ ...
ReplyDeleteप्रेम पर सैकड़ों बार लिखने वाले भी नहीं जानते...
बेहद खूबसूरत !
वाणी जी ....ह्म्म्म ,प्रेम पे लिखने और प्रेम में होने में ..बहुत अंतर है .
ReplyDeleteवाह …………प्रेम मे पूर्ण समर्पण ही तो उसकी पराकाष्ठा है।
ReplyDeleteवंदना ...प्रेम की चरम स्थिति है...पूर्ण समर्पण .
ReplyDeleteवाह ...बहुत खूब कहा है आपने इस अभिव्यक्ति में ।
ReplyDeleteमैंने तो तेरे प्यार में
ReplyDeleteअपने अहं की ..
सारी दीवारें गिरा दी हैं.
.......इस प्रकार की रचना मन में बस जाती है निधि जी
शब्दों और भावों का अद्भुत संयोजन..
ReplyDeleteयह दीवार हट जाये तो समझिये सब ठीक है |
ReplyDeleteप्रेम में अहं शेष रह ही नहीं सकता.....प्रेम तो समर्पण है.....
ReplyDeleteसदा...बहुत-बहुत आभार!!
ReplyDeleteसंजय जी...रचना ,आपके दिल तक पहुंची....अच्छा लगा यह पढ़ कर .
ReplyDeleteसुनील जी...यह दीवार गिरना ज़रुरी है...वरना ,प्रेम कहाँ रह पायेगा दीवारों के बीच..उसे तो बहने के लिए जगह चाहिए
ReplyDeleteकुमार...बिलकुल सही..प्रेम और अहं..दोनों एक साथ नहीं रह सकते
ReplyDeleteमैंने तो तेरे प्यार में
ReplyDeleteअपने अहं की ..
सारी दीवारें गिरा दी हैं...
कुछ दीवारें मेरे वजूद की भी गिरी हैं निधि जी ....देख रहा हूँ साक्षी भाव से बाकी जो बचा है उसको .....
अद्भुत रचना निधि जी ..बधाई हो !
आनंद जी...आपकी बधाई स्वीकारती हूँ सशर्त कि आप पुनः जी का प्रयोग नहीं करेंगे.
ReplyDeleteयह दीवारें गिरना बहुत आवश्यक है...अन्यथा समस्त जीवन इनकी कैद में ही व्यतीत हो जाने का खतरा रहता है .
निधि जी ..सुन्दर भाव.. बहुत खुबसूरत प्रस्तुति ...्बधाई..
ReplyDeleteमहेश्वरी जी.....हार्दिक आभार!!!
ReplyDeleteअपने अहं की ..
ReplyDeleteसारी दीवारें गिरा दी हैं.
बहुत सुन्दर चिंतन....
सादर बधाई...
संजय जी ....बहुत - बहुत शुक्रिया,आपका .
ReplyDeleteवाह वाह वाह ..इसे कहते हैं पाक साफ़ प्रेम. यह अहम की दिवार हि गिर जाये तो क्या है.
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी आपकी कविता.
शिखा जी....धन्यवाद!!सब रिश्ते स्वतः खूबसूरत हो जाएँ...यदि ये दीवारें गिरा दी जाएँ .
ReplyDeleteये अहम ही बड़ा बेरहम है.यह दीवार गिर गई तो बस सारी कायनात ही मिल जाए.सुंदर रचना.
ReplyDeleteअरुण जी..जिस दिन भी यह दीवार गिरेगी तो साक्षात परमात्मा से प्रेम की लगन लग जायेगी .
ReplyDeleteखूबसूरत..!!!
ReplyDeleteशुक्रिया...प्रियंका.
ReplyDeleteबस,प्यार को स्वीकार करने की क्षमता शेष है .
ReplyDeleteसिर्फ इतना ही नहीं निधि प्यार करने की क्षमता भी तो बस ..अनंत है ..प्यार कोई करे न करे ...इकरार कोई करे न करे ..और इज़हार भी न करे ..अब मुझपे कोई फर्क क्यूँ नहीं पड़ता ?
ये डूबना ही तो तर जाना है ..सच अहम् तो दीवार खडी करता है ..प्यार तो बस प्यार ही कर सकता है
तूलिका......मै,सौ फीसदी सहमत हूँ .प्यार में होने के बाद ,बाकी कुछ पाने को शेष ही कहाँ रहता है ....प्यार अपने आप में संपूर्ण है ...उसमें एकबारगी डूब कर ही इंसान पार हो जाता है ...अहं की दीवार का प्यार में स्थान ही कहाँ है ....प्यार में प्यार के अलावा कुछ अन्य होने को होता ही नहीं है ,कभी .
ReplyDelete@ निधि ........ बहुत अच्छा किया तुमने जो अपनी अहम् कि सारी दीवारें गिरा दीं !......... क्योंकि इनके रहते , प्रेम तुम्हारे जीवन में न उतर पाता !......
ReplyDeleteप्रेम का सारा व्याकरण ही उल्टा है.........जीतता वही है ...जो सब हारता है !
एक सूफी फकीर थे जलालुद्दीन रूमी .....उनका एक बहुत प्रसिद्ध गीत है......
"प्रेयसी के द्वार पर किसीने दस्तक दी ...
भीतर से आवाज़ आयी , " कौन है ? "
जो द्वार के बाहर था उसने कहा , " मैं हूँ !"
प्रत्युत्तर में सुनायी पड़ा , " यह घर मैं और तू - दो को न सम्हाल सकेगा ! " ... और बंद द्वार बंद ही रहा !!!
प्रेमी तब जंगल चला गया ! वहाँ उसने तप किया , उपवास किए , प्रार्थनाएँ कीं ! बहुत चाँदों के बाद वह लौटा और दुबारा उसी द्वार को खटखटाया !
फिर वही प्रश्न : " बाहर कौन है ? "
पर इस बार द्वार खुल गए , क्योंकि उत्तर दूसरा था !
उसने कहा , " तू ही है ! "...."
निधि , इस संसार में हर कोई लालायित है प्रेम के लिए ! ....हर कोई प्रेम के द्वार पर दस्तक दे रहा है !.....
पर प्रेम द्वार नहीं खोलता !........
मैं चाहती हूँ कि प्रेम उतरे मेरे जीवन में .......अमृत बरसे !......लेकिन मेरा पात्र अमृत को सम्हालने योग्य भी तो हो !!!.......
आमंत्रण भी देती हूँ मैं ...........और द्वार भी बंद रखती हूँ ......फिर किस तरह आएगा मेरा अतिथि ?
ये ' मैं ' ही तो बाधा है.......अपात्रता है !........ये अहंकार ही मिटाता है सब कुछ ....... यही विध्वंसक है !!
इसीलिये जीवन में जो भी महान सृजन की घड़ियाँ होती हैं , वे तभी घटती हैं जब अहंकार नहीं होता !
गुरुदेव रविन्द्रनाथ से किसीने पूछा कि " आपने इतने गीत लिखे -छः हज़ार - कैसे आप कर पाये ? "
गुरुदेव ने कहा , " यह मत कहो कि मैंने लिखे ! जब तक मैं रहता हूँ , तब तक तो गीत उतरता ही नहीं ! .......कभी कभी जब मैं खो जाता हूँ -तब गीत उतरता है ! "
" हेरत हेरत हे सखी रह्या कबीर हेराई
बूँद समाती समुंद में, सो कत हेरी जाई ?"
बूँद अपनी सीमाएं तोडती है........ तो सागर बन जाती है !......फिर बूँद ढूँढने से भी मिल सकती है भला ?.........प्रेम का यज्ञ भी 'स्व' की पूर्णाहुति के बिना फलित नहीं होता !
प्रेम तो सूरज की तरह है.......हवा की तरह है....
प्रेम ऐसा है जैसे द्वार पर सूरज निकला हो ! .....बाहर हवा के शीतल झोंके बह रहे हों !........लेकिन मैं उनको अपने घर के भीतर लाने के लिए कुछ भी नहीं कर सकती !
चाहूँ भी तो धक्के दे कर...पोटली - गठरी में बाँध कर सूरज को...हवा को भीतर नहीं ला सकती !
बस इतना ही कर सकती हूँ ........कि द्वार बंद न करूँ !.........दीवारें खड़ी न करूँ !...
गिरा दूँ सारी दीवारें ...जैसे तुमने गिरा दीं हैं निधि !!!
सूरज की किरणें ........हवा के झोंके .....ख़ुद-ब-ख़ुद भीतर आ जायेंगे !
तुमने कहा....
"क्यूंकि ,
बस,प्यार को स्वीकार करने की क्षमता शेष है ! "
बस यही तो चाहिए प्रेम के लिए !........
मेरे प्राणों की गागर खाली हो....... मेरे 'अहम्' से न भरी हो ....... तो ही प्रेम का जल भर पाऊँगी उसमें !
बस इतना ही करना है !!!
"कबीर मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर
पाछे पाछे हरि फिरत, कहत कबीर कबीर ! "
अर्चि दी.....आप जब भी ,जो कुछ भी समझाती हैं..वो कहीं बहुत गहरे उतर जाता है .इतनी खूबसूरती...इतना करीना ..कहीं और कहाँ????
ReplyDeleteआपने बिलकुल सही कहा कि प्रेम का व्याकरण ही बिलकुल उलटा है..इस खेल के नियम बाकी हरेक से अलग हैं...यहाँ ही हार के भी जीत जाते हैं और जीतने के बाद भी हार जाते हैं .
यह अहम तो हमें ....सदा से रोकता ही है..दीवारें ही खडी करता है ...बहुत आवाश्यक है ''मैं '' के इस भाव का तिरोहीकरण ...अपना आप खोयेंगे तब भी तो तुझे पायेंगे .
दी...आप जब भी लिखती हैं ...मैं कृतार्थ हो जाती हूँ..मेरा लिखा मानो धन्य हो जाता है...इसी से हमेशा प्रतीक्षा रहती है...आपकी टिपण्णी की .
तेरा सब कहा....किया ....
ReplyDeleteनिकल जाता है आर-पार.
प्रेम से परिपूर्ण मेरे इस अस्तित्व में
क्यूंकि ,
बस,प्यार को स्वीकार करने की क्षमता शेष है ........... बस अहम को खत्म कर ही प्रेम को अंगीकार किया जा सकता है...बहुत खूब!
यही सच है..ईगो हटाये बिना प्यार संभव ही नहीं है.
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