ज़िन्दगी एक किताब सी है,जिसमें ढेरों किस्से-कहानियां हैं ............. इस किताब के कुछ पन्ने आंसुओं से भीगे हैं तो कुछ में,ख़ुशी मुस्कुराती है. ............प्यार है,गुस्सा है ,रूठना-मनाना है ,सुख-दुःख हैं,ख्वाब हैं,हकीकत भी है ...............हम सबके जीवन की किताब के पन्नों पर लिखी कुछ अनछुई इबारतों को पढने और अनकहे पहलुओं को समझने की एक कोशिश है ...............ज़िन्दगीनामा
Thursday, January 5, 2012
इतना डरते क्यूँ हैं?
स्वीकारने से लोग डरते क्यूँ हैं?
नकारने में इतना वक्त गंवाते क्यूँ हैं?
नहीं जानते,शायद...
कि
स्वीकारने में मुक्ति है,
नकारने में बंधन है .
जब प्रेम स्वाभाविक है
मूल स्वभाव है मनुष्य का ...
तो उसकी स्वीकृति में इतनी हिचक क्यूँ?
उसको मानने में इतनी शर्म क्यूँ?
खुद से डरते हो या समाज से ??
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जब प्रेम स्वाभाविक है
ReplyDeleteमूल स्वभाव है मनुष्य का ...
तो उसकी स्वीकृति में इतनी हिचक क्यूँ?
उसको मानने में इतनी शर्म क्यूँ?
खुद से डरते हो या समाज से ??
अच्छी सोचपरक प्रस्तुति है आपकी.
खुद के ही आईने में झांकने से डर क्यूँ लगता है
निधि जी बहुत अच्छी कविता.. मगर मुझे लगता है कि बंधन स्वीकृति में है....नकार दिया तो फिर कैसा लेना देना,,,क्या बंधन !!!!
ReplyDelete:-)
विद्या जी
ReplyDeleteमुझे लगता है की प्रेम को स्वीकारने की बात कही है .. यदि स्वीकार कर लिया जाये तो मन उन्मुक्त हो जाये ...
अच्छी प्रस्तुति
हो सकता है संगीता दी....मैं शायद भाव समझ नहीं पायी..या मेरी सोच निधि जी से मिल नहीं पायी...निधि जी बुरा ना मानियेगा प्लीस :-)
ReplyDeleteसच कहा ... प्रेम है तो स्वीकारना चाहिए ...
ReplyDeleteजिस दिन स्वयं को प्रेम के स्वीकार और अस्वीकार के बीच स्थापित कर लिया, उस दिन प्रेम की पराकाष्ठा हो जाती है, जिसे भक्ति कहते हैं..
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता!!
बिल्कुल सही कहा आपने ...गहनता लिए बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteजहा मन स्वीकारने से डरता है स्वीकार नहीं करता, वहा प्यार संभव नहीं है,यदि प्यार है तो जितनी जल्दी स्वीकार कर ले मन एक बंधन में बंध उन्मुक्त हो जाता है..
ReplyDeleteराकेश जी...यही तो परेशानी है कि हम खुद से भी कई बार झूठ बोलते रहते हैं.
ReplyDeleteविद्या...आपने अपनी बात रखी..मुझे अच्छा लगा...आपको माफी मांगने की ज़रूरत नहीं है,कतई .यूँ तो ,संगीता जी ने मेरी बात कह कर मेरा काम आसान कर दिया है पर,तब भी मैं यह और जोड़ना चाहूंगी कि ...जब प्रेम हमारा मूल है..तो उसे यदि नकारते रहेंगे तो बंधन और बढ़ता जाएगा ..क्यूंकि जो चीज़ है उसे नकारना ,उससे बचना ...मुक्त नहीं कर सकता ..वहीँ अगर प्रेम को स्वीकार कर लिया जाए तो हम हलके हो जाते हैं...मुक्त हो जाते हैं.
ReplyDeleteसंगीता जी...आपका दिल से आभार मेरी बात को समझने और समझाने के लिए.
ReplyDeleteदिगंबर जी...स्वीकारना आसान है...नकारने की अपेक्षा ..
ReplyDeleteचला बिहारी ब्लॉगर बनने...यह सामंजस्य स्थापित कर पाना आसान नहीं है...
ReplyDeleteसदा...आपका तहे दिल से शुक्रिया!!
ReplyDeleteविधा...बिलकुल ,प्यार को स्वीकारने से ..बंधन से मुक्त होना संभव है.
ReplyDeleteखुद से डरते हैं शायद...जो खुद मजबूत नहीं वो कुछ कर ही क्या सकता है...
ReplyDeleteऔर फिर प्रेम तो वो बंधन है...जिसमें बंधकर ही आज़ादी का एहसास हो पाता है...
कुमार..प्यार के इस बंधन का सुख वही समझ सकता है जो इसमें बंधे ..
ReplyDeleteस्वीकारने से लोग डरते क्यूँ हैं?
ReplyDeleteनकारने में इतना वक्त गंवाते क्यूँ हैं?
नहीं जानते,शायद...
कि
स्वीकारने में मुक्ति है,
नकारने में बंधन है .........वहम में अच्छे बना रहना चाहते हैं लोग
bahut sundar
ReplyDeleteमूल स्वभाव है मनुष्य का ...
ReplyDeleteतो उसकी स्वीकृति में इतनी हिचक क्यूँ?
उसको मानने में इतनी शर्म क्यूँ?
dr to lagata hi hai tandan ji yahan adarshon ka labada jo hai ... fil hal ak krantikari va unmukt vichardhara sametati yui rachana ko mera salam ...tatha apko hardik badhai.
स्वीकारने में मुक्ति है,
ReplyDeleteनकारने में बंधन है ...... बिलकुल सच !
रश्मि जी.....ऐसे लोग सारी ज़िंदगी...वहम की दीवारों के बीच गुज़ार देते हैं .
ReplyDeleteसमझ ही लें तो क्या बात है !
Deleteजी....
Deleteप्रकाश....थैंक्स!
ReplyDeleteनवीन मणि जी.. तहे दिल से आपका शुक्रिया!!
ReplyDeleteनिवेदिता...मेरी बात से सहमत होने के लिए धन्यवाद!!
ReplyDeleteआपसे सहमत हूँ,बहुत सुंदर अभिव्यक्ति,बढ़िया प्रस्तुति,....
ReplyDeletewelcome to new post--जिन्दगीं--
सुन्दर प्रस्तुति........
ReplyDeleteइंडिया दर्पण की ओर से नववर्ष की शुभकामनाएँ।
धीरेन्द्र जी ...नवाजिश!!पोस्ट देखने ज़रूर आउंगी .
ReplyDeleteआपको भी नववर्ष की शुभकामनायें!!
ReplyDeleteइंडिया दर्पण....थैंक्स!!
प्यार स्वीकार का ही दूसरा नाम है...
ReplyDeleteकभी कभी यह भी जरुरी हो जाता है....निधि जी
ReplyDeleteसुंदर भावाभिव्यक्ति ! मेरी राय में लोग समाजिक बंधनों से बंधे मर्यादा पालन करना चाहते हैं और नैतिकता को कसौटी बना अपनी चाह, प्रेम को स्वीकारने नहीं अपितु अपनी भावना को दिल में छुपा कर सामाजिक गरिमा को बनाये रखना चाहते हैं । कहा भी है दिल तो बच्चा है जई ना जाने किस के लिये ज़िद कर बैठे?
ReplyDeleteबेजोड़ भावाभियक्ति....
ReplyDeleteजब प्रेम स्वाभाविक है
ReplyDeleteमूल स्वभाव है मनुष्य का ...
तो उसकी स्वीकृति में इतनी हिचक क्यूँ?
उसको मानने में इतनी शर्म क्यूँ?
खुद से डरते हो या समाज से ??
......
अरे कोई समाज से नहीं डरता आजकल .... खुद से ही डरते है बुजदिल !!
बहुत बढिया प्रस्तुति
ReplyDeleteso nice ....!!
ReplyDeleteमनोज जी....स्वीकार करना भी ज़रूरी है
ReplyDeleteसंजय जी....मुझे लगता है ..कभी-कभी क्यूँ ?प्रेम है तो हमेशा ही स्वीकार करना चाहिए
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसुशीला..मैंने माना कि सामाजिक बंधन कभी-कभार आड़े आ जाते हैं पर,जिससे आप प्यार करते हैं उसके समक्ष स्वीकार करने मे कैसी हिचक ..उसको बताने में कैसा डर
ReplyDeleteसुषमा...थैंक्स !!
ReplyDeleteआनंद जी....हाँ आपने सही कहा अधिकतर लोग खुद से ही डरते हैं .खुद से ही जो डरे उसे क्या कहा जाए.
ReplyDeleteबुजदिल ...बोला तो मैंने बिंदास !
Deleteअंजू.....तहे दिल से शुक्रिया!!
ReplyDeleteअशोक जी...आभार!!
ReplyDeleteयही तो समस्या है कायर सभ्य समाज की....।
ReplyDeleteअनुजा दी....सभ्य समाज में अगर प्यार करने में डर नहीं लग रहा तो स्वीकारने में डर क्यूँ लगता है?
ReplyDeleteये सच है कि प्यार एक प्राकृतिक भावना है, मगर समाज के नियम और कानून इंसान के बनाए हुए हैं |समाज में सहजता एवम सम्मानपूर्वक रहना है तो उनकी अनदेखी भी नहीं की जा सकती| हाँ, ये ज़रूर है कि प्यार का अहसास आज भी दुनिया का भी सबसे खूबसूरत अहसास है....!! एक दमदार रचना के लिए बधाई ...!!
ReplyDeleteहाँ....आपकी बात से सहमत हूँ.प्यार करने में जो लोग नहीं डरते वो कहने में क्यों इतना घबराते हैं .शुक्रिया!!पसंद करने के लिए .
Deleteये इश्क नहीं आसां इतना तो समझ लीजे
ReplyDeleteइक आग का दरिया है और डूब के जाना है
इन्ही दुश्वारियों का डर होता है ...आग के दरिया में उतर कर सब कुछ होम कर देने वाले कम ही होते हैं ...नादान होते है ..मुक्ति और बंधन का अंतर समझ नहीं पाते...भटकते रहते है कई जन्मों तक
कुछ सवाल अनुत्तरित ही रह जाते हैं.....! एक सुंदर संक्षिप्त रचना......! :)
ReplyDeleteतूलिका....सब कुछ होम करने वाले और उसमें भी आनंद की अनुभूति करने वाले निश्चित ही कम होते हैं....वे,जो मुक्ति-बंधन का भेद नहीं समझते..उनकी नियति बन जाता है भटकाव .
ReplyDeleteस्मृति ....अनुत्तरित रह नहीं जाते ..जान के छोड़ दिए जाते हैं.
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