ज़िन्दगी एक किताब सी है,जिसमें ढेरों किस्से-कहानियां हैं ............. इस किताब के कुछ पन्ने आंसुओं से भीगे हैं तो कुछ में,ख़ुशी मुस्कुराती है. ............प्यार है,गुस्सा है ,रूठना-मनाना है ,सुख-दुःख हैं,ख्वाब हैं,हकीकत भी है ...............हम सबके जीवन की किताब के पन्नों पर लिखी कुछ अनछुई इबारतों को पढने और अनकहे पहलुओं को समझने की एक कोशिश है ...............ज़िन्दगीनामा
Friday, December 9, 2011
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बेहतरीन...प्रेम ही प्रेम बस
ReplyDeleteखुबसूरत अंदाज़
www.poeticprakash.com
बिल्कुल सच ।
ReplyDeleteमैं ..मैं ही नहीं रही
ReplyDeleteतुझमें ही व्याप्त होकर
तुझमें ही परिणत हो गयी.
मन की भावनाओं और कशमकश को सुन्दर शब्द दिए है आपने....अच्छी प्रस्तुति.....निधि जी
करता है विवश ... पर वहीँ से सत्य के रास्ते खुलने लगते हैं ...
ReplyDeleteखूबसूरत..
ReplyDelete...
"समर्पण देख तेरा..
समर्पित हो गयी..
ह्रदय में बसाते-बसाते..
तुझमें ही परिणत हो गयी..!!!"
...
बहुत सुन्दर कविता...
ReplyDeleteवाकई.... सच्चा प्रेम अंध भक्ति की तरह होता है...
शुभकामनाएं.
अच्छी रचना
ReplyDeleteये प्रेम की पराकाष्ठा है ... असहाय नहीं है ये स्थिति जीवन है यही ...
ReplyDeleteनिधि जी '''
ReplyDeleteजब प्रेम सच्चा हो तो सभी संवेदनाएं प्रेमी
पर समाप्त होजाती है,...बेहतरीन पोस्ट,...
मेरे पोस्ट में आपका इंतजार है,....
प्रेम में अपना कुछ बचता ही कहाँ है....
ReplyDeleteबहुत ही खुबसूरत और कोमल भावो की अभिवयक्ति......
ReplyDeletebhaut khubsurat se prem ko abhivaykt kiya aapne....
ReplyDeletebhaut hi khubsurati se prem ko abhivaykt kiya hai apne...
ReplyDeletetabhi to kahte hain....pyar ki nazar se sab kuchh badla nazar aata hai.
ReplyDeleteप्रकाश..प्रेम जहां पहुँच जाए...वो वस्तु स्वयं सुन्दर हो जाती है
ReplyDeleteसदा...सच्ची मुच्ची वाला सच
ReplyDeleteसंजय जी....आपको रचना अच्छी लगी...धन्यवाद .
ReplyDeleteरश्मिप्रभा जी..मैं पूर्णतया आपसे सहमत हूँ.
ReplyDeleteवंदना...हार्दिक धन्यवाद ,मेरी रचना को शामिल करने हेतु.
ReplyDeleteप्रियंका...आभार.
ReplyDeleteजो तुमने लिखा है न...बस,वही प्यार है .
विद्या...थैंक्स !!प्रेम को बस प्रेम रहने दें.............
ReplyDeleteमहेंद्र जी....थैंक्स!!
ReplyDeleteदिगंबर जी...सच,प्रेम की पराकाष्ठा है...द्वैत भाव का समापन .परिणत हो जाना
ReplyDeleteधीरेन्द्र जी....सारी परिधि जब प्रेमी से प्रारंभ हो और वहीँ समाप्त हो जाए ..वही प्रेम है
ReplyDeleteकुमार...सही कहा ...जब अहम भाव ही शेष न रहे तो कुछ भी अपना कैसे बचेगा ?
ReplyDeleteसुषमा.....हार्दिक धन्यवाद!!
ReplyDeleteसागर....पसंद करने के लिए शुक्रिया
ReplyDeleteअनामिका..प्यार सब बदल देता है...इंसान को,नज़रिए को,नज़र को
ReplyDeleteअति सुन्दर ....!!
ReplyDeleteपूनम ....थैंक्स !!
ReplyDeleteनिधि जी ....वाह क्या कहने....!!,इस युग में प्रेम का इस कदर विनम्र समर्पण..? अब ये मत कहियेगा कि प्यार तो प्यार है, इसे कोई और नाम न दो|आपकी समर्पित भावना,आपके बेबाक एवम मौलिक प्रेम की अनवरत धारा को मेरा अभिवादन......!!!!!
ReplyDeleteशंकर जी....इस खूबसूरत टिप्पणी हेतु धन्यवाद.प्रेम का तो स्वरुप ही यही है...समर्पण करना ,अपना अहम त्याग देना ही तो सिखला देता है ...प्रेम.
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