Thursday, August 20, 2015

समझौता

कभी किसी का मान रखने को
तो कभी मन रखने को
अधिकतर इसलिए कि
किसी को खराब न लगे
कोई बुरा न मान जाये
कभी किसी की इज़्ज़त की खातिर
तो कहीं किसी के प्यार के लिए
कहीं रिश्ता बचाने को
कभी बात समझाने को
कभी किसी बड़े की खातिर
तो कई बार छोटों के लिए
समझौते कर के अब ऊब गयीं हूँ ...
इस तरह के जीने से
बिना सही गलत की सोचे
झुकते चले जाने से
दूसरा दबाता जाये
खुद के दबते जाने से थक चुकी हूँ

बचपन से लेकर अब तक
नम्र रहना ,लड़ना मत ,
बड़ों का कहा मानना
छोटों का कहा सुनना
यह सब सुन सुनकर
बुरी तरह से पक गयी हूँ

क्यों नहीं सिखाता कोई
नम्र रहकर,बिना लड़े
सही गलत में चुनाव करना
कि जो सही है
फिर वो बड़ा है या कि छोटा
यह मायने रखता नहीं
उसका कहा सुनना
उसका कहा मानना
जो सही लगे
बस वही करना।
जो गलत हो या गलत लगे
उसको न सहना...
तुम लड़ना ।

कोई रिश्ता कभी न ढोना
परिवार समाज की दुहाई पे
कहना तुम यह खुल के
नहीं चाहिए ऐसा कोई रिश्ता
जहां उसूलों को छोड़ना पड़े
रीढ़ की हड्डी में लोच आये जिससे
ऐसा कोई सम्बन्ध गवारा ही नहीं

बात समझने की सीखने की
यूँ भी बस इतनी सी ही
समझौतों की एक हद होती है
और खुद्दारी पे अगर बात आये
तो उसपे कायम रहना
ज़िन्दगी कहती है

2 comments:

  1. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (21.08.2015) को "बेटियां होती हैं अनमोल"(चर्चा अंक-2074) पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।

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  2. बात समझने की सीखने की
    यूँ भी बस इतनी सी ही
    समझौतों की एक हद होती है
    और खुद्दारी पे अगर बात आये
    तो उसपे कायम रहना
    ज़िन्दगी कहती है

    सच बात है.

    ReplyDelete

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मेरी राह के हमसफ़र ....

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