Wednesday, March 21, 2012

आदतें


एक कश लेते हो
धुंए का छल्ला बना
हवा में उड़ाते हो
क्या उस वक्त कभी...
मेरा अक्स दीखता है धुंए में ????
तुम्हारी उँगलियों के बीच फंसी सिगरेट
निकाल फेंकने को तैयार ,मेरी उंगलियां .
तुम्हारी उँगलियों के बीच जहाँ
मेरी उँगलियां होनी थीं ...
सिगरेट कैसे फंसा लेते हो??

व्हिस्की के घूँट
हलक से नीचे उतारते समय
जीभ को महसूस होती है कड़वाहट
अंदर तक जब जलाती है सनसनाहट
इस सब के बीच मेरे चेहरे की तल्खी
जो केवल तुम्हारे साथ से जाती थी
याद आती है क्या ???

मानो या न मानो पर,
तुम्हारे जिस्म को नुक्सान पहुंचाने वाली
ये सारी आदतें
मेरी रूह पे ....एक आघात सी हैं
मन पे एक निशान सी हैं .


जिस्म से रूह का सफर
तुम कब समझोगे..????

37 comments:

  1. कल 22/03/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल (संगीता स्वरूप जी की प्रस्तुति में) पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  2. मर्मस्पर्शी...उत्‍कृष्‍ट अभिव्‍यक्ति ..

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    1. अमरेन्द्र जी...बहुत -बहुत आभार!!

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  3. जिस्म से रूह का सफ़र रूह ही करती है

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    1. जिस्म तो जिस्म तक ही जाएगा..यकीनन.
      रूह का सफर तो रूह से ही होगा

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  4. बहुत खूब..........
    गहन प्रस्तुति...

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    1. हार्दिक धन्यवाद!!

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  5. ्बेहद मार्मिक अभिव्यक्ति।

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    1. तहे दिल से शुक्रिया!!

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  6. good one....
    koi samjhe to....
    n samjhe to......!!

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    1. बात तो वही है .......कोई समझे तो.

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  7. बहुत शशक्त रचना है आपकी...भावाभिव्यक्ति भी गज़ब की है...शब्दों का चयन अप्रतिम है...मेरी बधाई स्वीकारें...



    नीरज

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    1. आपकी बधाई हेतु धन्यवाद !!!

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  8. बहुत ही बढिया।

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  9. बेहतरीन प्रस्तुति काश यह बात हर धूम्रपान या कोई अन्य नशा करने वाला हर इंसान समझ पाता तो क्या बात होती बहुत ही सुंदर एवं सार्थक रचना....

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  10. मानो या न मानो पर,
    तुम्हारे जिस्म को नुक्सान पहुंचाने वाली
    ये सारी आदतें
    मेरी रूह पे ....एक आघात सी हैं
    मन पे एक निशान सी हैं .


    जिस्म से रूह का सफर
    तुम कब समझोगे..????

    KHUBSURAT KHAYAL.

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    1. रमाकांत जी....हार्दिक आभार!

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  11. उत्तम भावाभिय्वाक्ति....
    सादर.

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  12. तुम्हारी इस आदत से रूह तार तार जिस्म हो छलनी जैसे...
    ...इस पीड़ा को हर कोई नहीं समझ सकता

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    1. वही समझ सकता है ..जिसने भोगा को.

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  13. जिस्म से रूह का सफर
    तुम कब समझोगे..????

    ....रूह की पहचान कहाँ रहती है इस नशे के बाद...मन की पीड़ा को व्यक्त करता बहुत उत्कृष्ट शब्द चित्र...शब्दों और भावों का अद्भुत संगम...आभार

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    1. जी हाँ...नशे के बाद तो किसी चीज़ की पहचान नहीं रहती

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  14. मानो या न मानो पर,
    तुम्हारे जिस्म को नुक्सान पहुंचाने वाली
    ये सारी आदतें
    मेरी रूह पे ....एक आघात सी हैं
    मन पे एक निशान सी हैं .
    vakai bahut hi prabhvshali rachana hai ....badhai sweekaren Nidhi ji .

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    1. बहुत-बहुत आभार,पसंद करने के लिए.

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  15. बहुत ही चिंतनीय रचना..........नि:शब्द करती हुई........

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    1. तहे दिल से शुक्रिया!!

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  16. "जिस्म से रूह का सफर
    तुम कब समझोगे..????
    "

    बहुत सुंदर कविता लिखी है आपने.
    बधाई !

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  17. Replies
    1. आपको भी नवसंवत्सर की अनेकों बधाई !!

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  18. अंदर तक हिला के रख दिया...मैं आदतों का किस हद तक गुलाम हो गया हूँ...

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    1. आपने यह स्वीकार तो किया कि आदतों के गुलाम हैं,आप.अच्छी बात है...अब इनसे मुक्त होने के भी सोचिये .

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टिप्पणिओं के इंतज़ार में ..................

सुराग.....

मेरी राह के हमसफ़र ....

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