किसी ने कहा ..
कि,
एक कोशिश करके देखूं .
उसे इतना न चाहूँ ...
कि ,
जुड़ाव के कारण
मुझे कोई तकलीफ हो.
जितना गहरा उतरूंगी
बाहर आना उतना मुश्किल हो जाएगा .
शुरुआत है
अभी ही रोक लूँ ..खुद को
क्या करूँ...?
मान लूँ ..?
पर,
ऐसा... होगा कैसे
वो भी...मुझसे
सोचती हूँ, कि प्रेम है...रहेगा
कैसे रोकूँ खुद को..??
चलो,ये कर लेती हूँ..
कि प्यार करती हूँ ...करती रहूंगी,सदा
बस,आज के बाद ..
जतलाना बंद कर दूंगी,तुम्हें .
मैं भी देखूं जो प्यार करते हैं पर जताते नहीं
किसी को चाह के भी कभी जो कह पाते नहीं
दूसरे लफ्जों में कहूँ तो जो तुमसे होते हैं
प्यार होता है फिर भी स्वीकार पाते नहीं
वो कैसे जीते हैं
उन्हें कैसा लगता है
दुआ करना मेरी इस कोशिश के सफल होने की
शायद..इस बदौलत
मैं जान पाऊं वो वजह, तुम्हारी ..
जुड के भी मुझसे दूरी बनाए रखने की
ज़िन्दगी एक किताब सी है,जिसमें ढेरों किस्से-कहानियां हैं ............. इस किताब के कुछ पन्ने आंसुओं से भीगे हैं तो कुछ में,ख़ुशी मुस्कुराती है. ............प्यार है,गुस्सा है ,रूठना-मनाना है ,सुख-दुःख हैं,ख्वाब हैं,हकीकत भी है ...............हम सबके जीवन की किताब के पन्नों पर लिखी कुछ अनछुई इबारतों को पढने और अनकहे पहलुओं को समझने की एक कोशिश है ...............ज़िन्दगीनामा
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चलो,ये कर लेती हूँ..
ReplyDeleteकि प्यार करती हूँ ...करती रहूंगी,सदा
बस,आज के बाद ..
जतलाना बंद कर दूंगी,तुम्हें .
बेहद सुंदर भावपूर्ण रचना ...बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
bahut gahre se aap ehsaason ko shabd deti hain...
ReplyDeleteअमरेन्द्र जी...आपका आभार ,रचना को पसंद करने हेतु .
ReplyDeleteरश्मिप्रभा जी...आपकी ओर से आया यह कमेन्ट मेरे लिए बहुत मायने रखता है ...तहे दिल से शुक्रिया !!
ReplyDeleteप्यार के भाव ...मन से लिख डाले आपने
ReplyDeleteअंजू.....मन से लिखा .. मन तक पहुँछे ..बस ,यही चाहती हूँ .
ReplyDeleteक्यूँ आसान नहीं होता है..किसी को यह समझा पाना कि--'आवश्यक नहीं हर अगर प्यार नहीं है तो जुड़ाव भी नहीं हो सकता..!!'..
ReplyDeleteहमारी दुआएँ आपके साथ हैं..हर पल..हर दिन..!!! खुशियाँ आपके घर में विराजें..!!!
किसी ने कहा ..
ReplyDeleteकि,
एक कोशिश करके देखूं .
उसे इतना न चाहूँ ...
..बहुत मर्मस्पर्शी अहसास और उनकी प्रभावी अभिव्यक्ति निधि जी...आभार
प्रियंका....तुमसे जुड़ाव और प्रेम पे क्या बहस करूँ...हाँ,यह ज़रूर चाहूंगी कि अपनी दुआओं में हमेशा मुझे याद रखना.
ReplyDeleteसंजय जी....आपका हार्दिक धन्यवाद .
ReplyDeleteकिसी ने कहा ..
ReplyDeleteकि,
एक कोशिश करके देखूं .
उसे इतना न चाहूँ ...
कि ,
जुड़ाव के कारण
मुझे कोई तकलीफ हो.
जितना गहरा उतरूंगी
बाहर आना उतना मुश्किल हो जाएगा ...बहुत ही गहरे भाव और एहसासों से रची अंतर मन की अभिवयक्ति.....
निधि तुम्हारी रचनाये मुझे मेरी अपनी ही बात लगती है ......पता नहीं क्यों ? शायद दर्द की ज़मीन एक हो .....या फिर वही ....माँ जाया हो ..
ReplyDeleteब्लॉग पर पोस्ट नहीं हुआ ..इसलिए यहाँ अपनी बात कह रही हूँ
wah.......................
ReplyDeleteसुषमा......आपका शुक्रिया कि आपने पढ़ने और सराहने का समय निकाला .
ReplyDeleteतूलिका ...तुम्हारा यह कहना कि ..आपको अपनी बात लगती है...मेरा लिखने को सार्थक अकर्ता है...भले हम स्वान्तः सुखाय लिखते हो...पर जब अपना लिखा किसी दूसरे को अपना सा प्रतीत होता है ...उससे जुड जाता है...आत्मसात हो जाता है.......तब एक आनंद की अनुभूति होती है.
ReplyDeleteजो भी दिल की सुनते हैं ..वो सभी एक ज़मीन की पैदावार होते हैं...
भावना.....हार्दिक धन्यवाद!!
ReplyDeleteप्यार....हो जाये तो फिर कहाँ रुका जाता है...बस जलने को होता है मन....प्यार की आग में...हमेशा के लिए....
ReplyDeleteप्यार कब रुक पाया है..
Delete@ निधि ........ ना ! मत करना ......ये कोशिश जो तुम करना चाह रही हो !......बेकार होगी !.....हार जाओगी .....और फिर दुखी होगी अपनी विफलता पर !
ReplyDeleteनिधि .....इसलिए भी मत करना.......क्योंकि तुम प्रेम को भावावेश में जैसा देखना चाह रही हो ...वैसा वो है कहाँ ?........और जैसा तुम बनने का प्रयास कर रही हो....वैसी तुम भी नहीं !!!
तुम वो तो कतई नहीं ...जो प्रेम में उतरती हो !.......तुम तो वो हो जिसमें प्रेम स्वयं उतरता है !........तुममें तो प्रेम स्वयं घटता है !........और प्रेम नफ़ा - नुकसान......हार - जीत .....जीवन - मरण देख कर तो उतरता नहीं !......वो तो स्वच्छंद है......उन्मुक्त है.....निरंकुश.....निर्बाध !......
वो जिस पर भी .....अपना स्वरूप प्रकट कर दे .........उसकी फिर कोई मुक्ति नहीं !.........अपनी गति जानता है पतंगा .......फिर भी क्या रोक पता है अपने उन्माद को ?.......
इतना ही सब सहज होता तो मीरा बाई क्यों कहतीं ......
"मैं बिरहणि बैठी जागूं जगत सब सोवे री आली॥
बिरहणी बैठी रंगमहल में, मोतियन की लड़ पोवै|
इक बिहरणि हम ऐसी देखी, अंसुवन की माला पोवै........"
या फिर...........
"मैं हरि बिन क्यों जिऊं री माइ॥
पिव कारण बौरी भई, ज्यूं काठहि घुन खाइ॥
ओखद मूल न संचरै, मोहि लाग्यो बौराइ.........."
कहती हो " जतलाना बंद कर दूंगी ! "....... अच्छा ?.......इतना आसान होगा ....तुम्हें लगता है ?? .......शब्द तो तुम्हारे अधिकार में हैं ....रोक सकती हो उन्हें !........पर मन का क्या ?..... वो सुनेगा तुम्हारी ?........और देह ??.......तुम्हारी आँखों से ले कर ....देह का कण कण जब प्रीत से आप्लावित हो कर छलकेगा .....तब किस किस को थामोगी तुम ??.........जब पोर पोर किसीका नाम सुन कर आह्लादित हो जाएगा ........तो कैसे छुपाओगी अपना भेद ......सोचा है कभी ??
और रही बात ..." जो तुमसे होते हैं .....प्यार होता है फिर भी स्वीकार पाते नहीं.....वो कैसे जीते हैं...उन्हें कैसा लगता है..."..........तो निधि बहुत से लोग आत्म प्रवंचना में भी जीते हैं.......... उनके सच को अपना सच मत बना लेना !! ......नहीं तो स्वर्ण मृग सा उनका छल तुम्हारी सरलता को भी छल लेगा !
तुम जैसी भी हो..........अनुपम हो !........बस यूँ ही रहना !!!
निधि जी , आपकी कविता अपनी सी लगाती है.... हरेक शब्द दिल को छू कर गुजार जाता है... सरल मगर अथाह गहराई लिए ...लाजवाब!
ReplyDeleteअच्छा लगा जान कर कि मेरा लिखा अपना सा लगता है ...आपके दिल को छूता है...आभार!!
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