Wednesday, July 13, 2011

ऐसा क्यूँ है????????????????

आज स्कूल की  छुट्टी थी
देर तक सोने के मौके का पूरा फायदा उठाया
अलसाई हुई ,उठी..
अखबार उठाने बाहर गयी..
अखबार देखते देखते,
आँखें मलते मलते
अंदर आ ही रही थी
कि, निगाह पडी एक समाचार पर........
आज ,अलग अलग शहर में
दो  लड़कियों के साथ
हुआ एक सा बर्ताव.
दोनों के चेहरे पर
तेज़ाब फेंक कर
निकल भागे नवयुवक.
जो दम भरते  थे उन लड़कियों से
मोहब्बत करने का
और अपने प्रणय निवेदन के उत्तर में
"ना" नहीं सुन पाए
और कह गए कि मेरी नहीं हुईं
कोई बात नहीं
किसी और की हो पाओ
ऐसा तुम्हें छोडेंगें  नहीं .

शताब्दियों पहले सूपर्नखा ने
प्रणय निवेदन किया था
लक्ष्मण के आगे
तब,
लक्ष्मण ने नाक कान काट दिए थे उसके

बात घूम फिर कर यहीं आती है
कि चाहें लड़की
प्रणय निवेदन करे
या लड़के प्यार का इज़हार  करें
स्वीकृति देने का ,हामी भरने का
या नकारने का अधिकार
केवल पुरुष को है
पर.....................
ऐसा क्यूँ है ???????????

33 comments:

  1. Nidhi ji -ramayan ko thheek se padhiyen tab Shree Laxman par aarop lagaiye .soorpnakha Mata sita par prahar ke liye badh rahi thi tab uske nak-kaan kate gaye the .aaj bhi kuchh kamatur striyan hinsak ho jati hain soorpnakha stri kahlane ki adhikari nahi hai .

    ReplyDelete
  2. शिखा जी....कोई किसी पे भी प्रहार करने के लिए आगे बढे तो ये नाक कान काटना उचित है क्या?स्त्री कहलाने का अधिकार उसे है या नहीं ...यह तय करने वाले हम और आप कौन हैं...जहां तक रही आरोप लगाने की बात ...मैंने किसी चरित्र पर आरोप नहीं लगाया ...जो मेरी सोच है उसके बारे में लिखा है...आपको हो सकता है रचना उचित लगे ...हो सकता है अनुचित लगे ...पर,मैं इतिहास ब्यान नहीं कर रही हूँ कि अक्षरशः जो लिखा गया है उसे ही हुबहू उतारूं...यह मेरी कल्पना की उड़ान है ...

    ReplyDelete
  3. रश्मिप्रभा जी...ऐसे प्रश्नों के जवाब देते वक्त हम में से अधिकतर ..अपनी गौरवशाली इतिहास परम्परा कि कमियां स्वीकारने में हिचकते हैं ...इसलिए जवाब देने से बचते हैं

    ReplyDelete
  4. आपने अपने मन की बात सुन्दर ढंग से व्यक्त की.
    जैसी जिसकी सोच,वैसा उसका जबाब.
    जिनको हम कमियाँ कहें वे भी अलग अलग द्रष्टिकोण से
    अलग अलग नजर आ सकतीं हैं.
    कुछ 'सूपर्नखा' के पक्ष में भी हो सकती हैं.
    उसका प्रणय निवेदन जब आवेशित हो आक्रमण में बदल गया
    तो भी उसको दण्डित किया जाना भी अनुचित लग सकता है.
    लक्ष्मण जी द्वारा किया गया कृत्य और उपरोक्त लड़कों द्वारा किया गया कुकृत्य क्या एक ही श्रेणी में रखे जा सकते है.


    लगता है मेरी पोस्ट भी आपका इंतजार कर रही है.

    ReplyDelete
  5. राजीव जी...आप ब्लॉग पर आये...आपने समय निकाल कर पोस्ट को पढ़ा एवं अपनी प्रतिक्रया दी...बहुत आभार...मैं प्रयास करूंगी कविता के कच्चेपन को आगे ठीक करने का....

    ReplyDelete
  6. राकेश जी...धन्यवाद...!!मैं लक्ष्मणजी और उन लड़कों द्वारा किया गए कृत्यों को एक श्रेणी में नहीं रख रही है
    मैं ,बस यह कह रही हूँ कि स्त्री चाहे प्रणय निवेदन करे...या दूसरे के निवेदन को मना कर दे...दोनों ही परिस्थिति में दुर्गति स्त्री की ही हुई ..
    आपके ब्लॉग पर अवश्य आऊँगी ..

    ReplyDelete
  7. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  8. बहुत ही सुन्दर रचना है...

    आदि काल से ही हर पीड़ा और दर्द को सहने की जिम्मेदारी स्त्री ही उठाती आ रही है ! ये समाज की बनायी रीत है या स्त्री के जीवन का हिस्सा !
    खैर रचना सुन्दर है भाव गंभीर हैं ! मैं बहुत ही छोटा हूँ इसपर प्रतिक्रिया करने के लिए पर फिर भी कुछ कहने की आज्ञा चाहूँगा !
    लक्ष्मण जी से आज के इन नवयुवकों की ये तुलना मुझे बहुत खटकी ...
    और दूसरा मेरे छोटे से अनुभव से ऐसा नहीं लगता की ये अधिकार सिर्फ पुरुषों को ही है...
    भूल चूक माफ़ करियेगा !

    ReplyDelete
  9. आदित्य...तुमने यह महसूस किया कि अधिकतर स्त्री के हिस्से में ही पीड़ा आती है...अच्छी बात है...और यहाँ मैंने लक्ष्मण और उन लड़कों की तुलना नहीं की है ...मैं मात्र इतना कहन चाह रही हूँ कि निवेदन को नकारने या निवेदन स्वीकारने ...दोनों ही स्थितियों में नारी ही क्यों सहन करे....?
    तुम्हारा अनुभव हो सकता है इस से विपरीत रहा हो...पर यहाँ तेज़ाब से जली लड़की और नाक कान कटी सूपनखा में समानता से स्त्री के जीवन की कटु सच्चाई को ...अपनी कल्पना से मैंने जोड़ने का प्रयास मात्र किया है

    ReplyDelete
  10. Sawaal achcha hai... dharmik kathaayen ya asli duniya.... striyon ke bhaag mein dukh aur yaatnaayen adhik hi hoti hain... :-( magar hum sab hain na waqt ko badalne ke liye :-)

    ReplyDelete
  11. शिखा जी यह प्रणय निवेदन हो ही नही सकता |यह कुछ और है ........

    ReplyDelete
  12. अंजना...सही है ...हम लोग हैं न..बदलाव लाने के लिए...भले ही एक छोटी शुरुआत ही सही ...चिंगारी को तो हवा दे ही सकते हैं...
    पता नहीं क्यूँ इन यातनाओं को नारी अपनी नियति समझने की भूल कर बैठती है

    ReplyDelete
  13. सुनील जी...ब्लॉग पर आने हेतु और अपने विचार रखने हेतु ...धन्यवाद !

    ReplyDelete
  14. बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न खड़े करती है आपकी रचना ... पर अहम में डूबा पुरुष अगर समझे तो ...

    ReplyDelete
  15. स्त्री स्वयं को पीड़ा उठाने की गठरी समझती है..यह सत्य है..!! पर इसे भी बड़ा सत्य यह है कि समाज में स्त्री को सही दृष्टि से कोई स्थान नहीं मिला है अब तक..!! कितना ही बलिदान करें..मिलता तो अपमान ही है..!!

    और आपकी यह उपमा बहुत प्रासंगिक है..!!!

    ReplyDelete
  16. एक शाश्वत प्रश्न उठाया है जो आज भी अनुत्तरित है..इसे प्रेम तो कभी नहीं कह सकते..जो तू मेरी भी नहीं तो परायी भी नहीं मानसिकता कभी भी उचित नहीं ठहराई जा सकती..बहुत सुन्दर रचना

    ReplyDelete
  17. .. निधि .. आपको इस सुंदर रचना के लिए बधाई... आपने समाज के क्रूर सत्य को बहुत ही बेबाकी से प्रस्तुत किया है .. आपके विचार और दलीलों से मै पूर्णत: सहमत हूँ ...
    ... 'प्रणय निवेदन' की अस्वीकृति पर ... हिंसक परिणाम .. अजीब परन्तु क्रूर सत्य है ...

    .. 'शिखा कौशिक जी' की आपत्ति 'सूपर्नखा सन्दर्भ' पर अचंभित करती है .... जहां तक मेरी जानकारी है 'सूपर्नखा' के 'प्रणय प्रस्ताव' पर राम व लक्ष्मण जी ने उसका उपहास किया .. तब वो हिंसक हो गयी.. और सीता जी पर प्रहार का प्रयत्न किया.. जिस पर 'लक्ष्मण जी' 'सूपर्नखा' के नाक कान काट दिए .. यहाँ पर 'प्रणय प्रस्ताव' का हिंसक परिणाम हुआ और अंत में स्त्री ही शिकार हुई...

    परन्तु मैं यहाँ ये भी बताना चाहूँगा कि ऐसे कई उदाहरण है जहाँ 'पुरुष' भी इस 'हिंसक परिणाम' के शिकार हुए है ... जहाँ स्त्री प्रभावशाली या बलशाली रही है... या उसने क़ानून का सहारा लेकर पुरुष द्वारा 'प्रणय प्रस्ताव' अस्वीकार करने पर उसे प्रताड़ित किया है...

    ReplyDelete
  18. मन को उद्वेलित करने वाली मार्मिक रचना....

    ReplyDelete
  19. दिगंबर जी...आप पुरुषों कि बात कर रहे हैं ...मैं तो कहती हूँ कि हम में से अधिकांशतः स्त्रियाँ भी नहीं समझती

    ReplyDelete
  20. प्रियंका...थैंक्स.........पोस्ट को पसंद करने के लिए....ये स्त्री की विडम्बना ही है कि उसके नसीब में अपमान ही है...फिर चाहे उस अपमान का कारण...अपने हों ,गैर हों या यह समाज ...सबसे मजे की बात है कि उसे स्त्री अपनी नियति मान कर स्वीकार कर लेती है

    ReplyDelete
  21. कैलाश जी....रचना को सराहने के लिए शुक्रिया...इस तरह के प्रेम को ...जिसमें हानि पहुंचाना ही सर्वोपरि हो ...कैसे प्रेम की श्रेणी में रखा जा सकता है ...यह तो कुत्सित कृत्य है

    ReplyDelete
  22. वर्षा जी...हार्दिक आभार ..!!

    ReplyDelete
  23. अमित..आपने पोस्ट में अन्तर्निहित बात को समझा...शुक्रिया !!
    मैंने भी यही दर्शाने कि कोशिश की है कि समाज के इस क्रूर सत्य में दुर्गति का पात्र सदा से नारी ही बनती आई है
    आपने कहा पुरुष भी इस तरह की हिंसा के भागी होते हैं ..जहां पर स्त्री बलशाली होती है ...मैं ,मानती हूँ .पर, इस तरह के उदाहरणों को उंगुलियों पर गिना जा सकता है .
    सूपनखा के प्रसंग पर रोशनी डालने के लिए ....थैंक्स!!

    ReplyDelete
  24. निधि ,पहली बार आपको पढ़ा ..... बहुत अच्छा लगा ...... आभार !

    ReplyDelete
  25. निवेदिता..धन्यवाद...उम्मीद है कि आगे की पोस्ट्स भी आपको अच्छी ही लगेंगी...मेरी कोशिश रहेगी कि आपको निराश न करूँ ..

    ReplyDelete
  26. क्या कहूं. बहुत सुंदर रचना, सटीक टिप्पणी

    ReplyDelete
  27. महेंद्र जी...बहुत बहुत आभार!!

    ReplyDelete
  28. आदरणीय निधि जी जी
    नमस्कार !
    @ प्रियांकभिलाशी जी से सहमत हूँ
    स्त्री स्वयं को पीड़ा उठाने की गठरी समझती है..यह सत्य है..!! पर इसे भी बड़ा सत्य यह है कि समाज में स्त्री को सही दृष्टि से कोई स्थान नहीं मिला है अब तक..!! कितना ही बलिदान करें..मिलता तो अपमान ही है..!!

    ReplyDelete
  29. संजय जी...मैं भी आपकी और प्रियंका की बात से पूरी तरह सहमत हूँ.

    ReplyDelete
  30. @ निधि ........ तुम्हारी कविता पढ़ी ........... और जैसे किसी शाँत....स्थिर ...ठहरे हुए पानी में कोई एक कंकड़ फेंक दे .....तो कैसे तरंगों पर तरंगें उठती जाती हैं !!.........एक के बाद एक .....फैलती जातीं हैं !!......और थोड़ी देर बाद सारा सरोवर अशांत और अस्थिर सा हो जाता है ; बस वैसी ही मनः स्तिथि का आभास हो रहा है मुझे !!!
    बहुत ही गहरी यंत्रणा को कुरेद दिया तुमने !..........कुछ घाव जो ऊपर से भरे हुए दिखते थे ...............कुछ दर्द जिन्हें मन की अंतरतम परतों में सहेज कर छुपा रखा था ......फिर से रिसने लगे हैं......फिर से कसमसाने लगे हैं !!!
    सच कहती हो तुम........ समाज ने नारी को पूजा का स्थान तो दिया......किन्तु उसे जीवन की गरिमा नहीं दी ! ........केवल श्वांसों के चलने से .......स्पन्दन के होने से ......ही तो सब कुछ चेतन नहीं हो जाता !!!........सप्राण होना.....इस से कहीं अधिक की मांग करता है ! ...... जीवंत होने के लिए ....ह्रदय में भी संवेदना चाहिए !......मन को भी स्पंदन चाहिए !....... भावों को भी श्वांस चाहिये !! ........
    और सप्राण होने के लिये प्राणों को गौरव चाहिये !!............. किन्तु नारी की त्रासदी ही यही रही है....की उसको युगों से भोग्या ही माना गया है !.......... वो सिर्फ इस्तेमाल की जाने वाली वस्तु मानी गयी है !...........उसके अपने अधिकार हैं कहीं ???
    निधि ....तुमने तो बहुत ऊंची बात उठायी है...'प्रणय निवेदन' की !....... मैं तुमसे एक बहुत आम...साधारण सी बात पूछूँगी .........जीवन के सबसे अन्तरंग ........सबसे वयैक्तिक ......सबसे घनिष्ठ सम्बन्ध में भी क्या उसे अपनी मनोकामना का अधिकार है ?.............क्या उसको अपनी अभिलाषाओं........इच्छाओं .......अपने स्वप्नों के अभिव्यक्ति की अनुमति है ?? .............क्या उसको भी अपनी आकांक्षा को स्वर देने की इजाज़त है ???
    या फिर इन सबके उल्लेख मात्र से ही उसकी शालीनता भंग हो जाती है ?? .........अपने मन की कोमल कल्पनाओं को....कामनाओं को अनावृत कर देने भर से वो लज्जा हीन हो जाती है ?? .......उसकी साधें उच्छ्श्रिनखलता के दायरे में ही क्यों आतीं हैं ??? ......... नारी की अकथ पीड़ा एक युग से अपने इन मौन प्रश्नों का उत्तर माँगती है !!!
    सूर्पणखा का प्रसंग एक प्रतीक मात्र है...........ठीक उसी तरह जैसे शिव के द्वारा पार्वती के त्याग का था..............या गौतम ऋषि के अहिल्या को श्राप का था ...........या मंदोदरी के सामने रावण के सीता के प्रति काम प्रतीति या स्वीकारोक्ति का था !!..........पुरुष करे तो उचित..........पुरुष के मन में जागे तो अधिकार ......पुरुष को रुचे तो शास्त्रोचित ......और नारी के लिए पाप .... अपराध .....कुकृत्य.....अधर्म !!!
    सच कहो........नारी को जीने का अधिकार कब मिलेगा ???

    ReplyDelete
  31. अर्ची दी...इस कविता में मैं जो कहाँ चाह रही थी...समझाना चाह रही थी...आप वही बात पकड़ने में...समझने में कामयाब हो गयीं...सूपनखा को मात्र एक प्रतीक के रूप में रखकर आपने उस पीड़ा को...यंत्रणा को समझा...जो मेरे दिल में उतरी थी .
    बिलकुल सही प्रश्न उठाये हैं आपने भी..अपने इस कमेन्ट में...कि आखिर कब मिलेंगे अपने अधिकार हमें...जो पुरुषों के लिए शास्त्रोचित है वह ही नारी के लिए कुकृत्य या अधर्म कैसे...कब हम अपने मन कि अंतरंग इच्छाएं कहने में ...बताने में ...झिझकना बंद करेंगी.
    मेरी बात को समझने और समर्थन देने के लिए आपका दिल से आभार !!

    ReplyDelete

टिप्पणिओं के इंतज़ार में ..................

सुराग.....

मेरी राह के हमसफ़र ....

Followers