कोई अगर ये कह दे

कि हमारे मध्य समय ने उत्पन्न की है दूरी ............
तो मैं यह मान सकती नहीं
क्यूंकि
मेरा ख्याल ,तुम्हारे पास
और तुम्हारा ख्याल मेरे पास
जिस पल पहुँच जाता है
समय तो वहीँ रुक जाता है
तो दूरी कब ?दूरी कैसी ? दूरी कहाँ ?
कोई अगर यह कह दे
कि तुम्हारी मेरी दूरी
समय की नहीं वरन स्थानों की है दूरी..................
तुम रहते हो दूर वहाँ
और मैं रहती हूँ दूर यहाँ
पर, मैं और तुम तो आ जाते हैं पास
जिस क्षण कर लें एक दूसरे को याद
तो दूरी कब? दूरी कैसी? दूरी कहाँ?
कोई अगर यह कह दे
कि स्थान की नहीं वरन अलग व्यक्तित्व होने से दूरी है................
पर, यह तो संभव ही नहीं है
क्यूंकि
तुम मेरी अस्मिता का ही रूप हो
और मैं तुम्हारी पहचान हूँ
तो दूरी कब? दूरी कैसी?दूरी कहाँ?
कोई अगर यह कह दे
कि तुम और मैं अलग व्यक्तित्व नहीं वरन भिन्न आत्मा होने से दूर हैं................
पर यह तो संभव ही नहीं है
क्यूंकि
आत्माएं भले भिन्न हों पर परमात्मा तो एक है
और इसीलिए शायद ,
तुम्ही नज़र आते हो मुझे हर ओर
तो दूरी कब? दूरी कैसी? दूरी कहाँ?
ये दूरी: मेरी-तुम्हारी
एक भ्रम है
जो "हमें "
"मैं" और "तुम" में बांटती है
वरना "ऐक्य" है मुझमें -तुममें
"हम" के रूप में
"परम ब्रहम" के स्वरुप में .