कितने करीब थे ....कभी ,हम..............
सालों साल....तुझसे वास्ता रहा
किसी कारण
किसी मोड पे फिर बिछडना पड़ा
आज ...........
ज़िंदगी एक ऐसी जगह ले आई है
जहां............
मैं हूँ
तू है
और तन्हाई है ....
मुझे यूँ तुमसे मिलना
सालों के बाद
बहुत अच्छा लग रहा है
साथ में,
एक अनजाना सा डर भी सता रहा है.
तुमसे नहीं डर रही हूँ
अपने से डर लग रहा है
कि
तुम्हारी ख्वाहिशें
नज़रों से जो कह रही हैं
.... कहीं तोड़ ना दें....
..वो सारी बंदिशें..........
मैंने जो ओढी हुई हैं.तुम तो रोक लोगे खुद को
मैं जानती हूँ
पर ,मैं....
तुम्हारी एक छुअन से
बिखर ना जाऊं कहीं ......
तोड़ ना दूं सारे बंधन
जो खुद पर हैं थोपे हुए.
जो भावनाएं कहीं दिल के किसी कोने में
डाल कर ,बंद कर ,भूल चुकी हूँ
उसकी चाभी तो तुम्हारे पास ही छोड़ आई थी ना.........
उस मोड पर जहां बिछड़े थे हम
सालों साल....तुझसे वास्ता रहा
किसी कारण
किसी मोड पे फिर बिछडना पड़ा
आज ...........
ज़िंदगी एक ऐसी जगह ले आई है
जहां............
मैं हूँ
तू है
और तन्हाई है ....
मुझे यूँ तुमसे मिलना
सालों के बाद
बहुत अच्छा लग रहा है
साथ में,
एक अनजाना सा डर भी सता रहा है.
तुमसे नहीं डर रही हूँ
अपने से डर लग रहा है
कि
तुम्हारी ख्वाहिशें
नज़रों से जो कह रही हैं
.... कहीं तोड़ ना दें....
..वो सारी बंदिशें..........
मैंने जो ओढी हुई हैं.तुम तो रोक लोगे खुद को
मैं जानती हूँ
पर ,मैं....
तुम्हारी एक छुअन से
बिखर ना जाऊं कहीं ......
तोड़ ना दूं सारे बंधन
जो खुद पर हैं थोपे हुए.
जो भावनाएं कहीं दिल के किसी कोने में
डाल कर ,बंद कर ,भूल चुकी हूँ
उसकी चाभी तो तुम्हारे पास ही छोड़ आई थी ना.........
उस मोड पर जहां बिछड़े थे हम
आदरणीय निधि जी..
ReplyDeleteनमस्कार !
मन को समझाना बहुत मुश्किल है और ये खुद तो कुछ समझाता ही नहीं है...
बहुत अर्थपूर्ण बात कही है । बढ़िया
बहुत ही अच्छी रचना.....अंतिम पंक्तियों का कोई ज़वाब नहीं है, " क्यूँकि उसकी चाभी तो तुम्हारे पास ही छोड़ आई थी ना उस मोड़ पर जहाँ बिछड़े थेहम " .........आभार
ReplyDeletecomplex heart.... very beautiful post !!!
ReplyDeleteसंजय जी.............नमस्ते!आपको रचना अच्छी लगी....मेरा सौभाग्य ...आप के कमेन्ट का बेसब्री से इन्तेज़ार रहता है ........साथ रहने के लिए शुक्रिया!!
ReplyDeleteज्योति जी.......यह बात तो सही है..दिल की बातें दिल ही जाने.......!
ReplyDeleteवाह्………गज़ब्…………आप तो अपने साथ बहा ले गयीं।
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ReplyDeleteNidhi bahut hi sunder...ek aancha sa daar...ek dabi hui khwaish...phir se milne ki khushi ...ek daba hua ehasas.....ek khud ko doobo dena ka maan....purana dabi huii umaang...phir se udna ki iccha...Nidhi itni khoobsoorti se tum neh abhivyakt kiya hai ki padh kar maaza aa gaya....
ReplyDeleteYeh Jo DARR tere PEHLU meinn haiiii.....yeh haii DARR Anjaan Mohabbat kaaa....
ReplyDeletebasss Mujhko Apnaa kerr lo Ham-dam...DARD....PYAAR bann Jaayegaa......
निधि जी... एक और सुन्दर रचना आपकी कलम से...
ReplyDeleteएक छोटी से तुकबंदी आपकी नज़र इस रचना पर...
दिल से चाहा तुझे, दिल से अपना माना,
चाहते दिन-ब-दिन बढती रहीं, दिल था बेगाना,
जरा सी भी दूरी तुझसे, सही अब जाती नहीं,
बिछड़ने के अनजाने डर से डरता यह दिल अनजाना...
आपका जिंदगीनामा भावों के तानो बानो का अदभुत संगम है.
ReplyDeleteजीवन में बिछोह के दर्द के अहसास से भी गुजरना पड़ता है.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.
मेरे ब्लॉग पर नई पोस्ट आपका इंतजार कर रही है.
'सरयू' स्नान का न्यौता है आपको.
खूबसूरत अभिव्यक्ति
ReplyDeleteवंदना जी....आभार!किसी रचना कि सार्थकता इसी में है कि वो पढ़ने वाले को बहा ले जाए.......मेरा लिखना सार्थक हो गया
ReplyDeleteसंगीता जी...............लगातार साथ बने रहने के लिए........उत्साह बढाने के लिए .........शुक्रिया !
ReplyDeleteराकेशजी.......आप को रचना अच्छी लगी,धन्यवाद.आपके सरयू स्नान के निमंत्रण को मैंने स्वीकार कर लिया है....अवश्य आऊँगी .
ReplyDeleteविनय जी.......मेरी पोस्ट को पसंद कर के उसे अपने शेर से नवाजने के लिए आपका बहुत-बहुत आभार .
ReplyDeleteअंकुर............बड़े दिनों बाद आपका कमेन्ट आया......ब्लॉग पर..अच्छा लगा आपका कमेन्ट पढ़कर.......यूँ ही साथ बने रहिये.....
ReplyDeleteमीनाक्षी........आपने तो क्या बढ़िया हिंदी लिखी है,आज.मैं तो इस बात से खुश हूँ कि आपकी मेहनत रंग लायी और कई कोशिशों के बाद आप ब्लॉग पर कमेन्ट करने में सफल हो ही गयीं .....आपका शुक्रिया....क्यूंकि आप आई..रचना को पढ़ा,सराहा एवं अपनी प्रतिक्रिया भी दी .
ReplyDelete....
ReplyDeleteखोने का डर भी साथ है पाने की खुशी में
लौटा है कोई मेरी जिंदगी में मुद्दत के बाद
….
आपकी इस रचना को एक बार फिर सलाम....
निधि आपकी कलम ज़िंदगी के अनछुए जज्बातों को बहुत ही बेबाकी से पेश करती है....
जिसके बयान में 'दर्द-ए-दम' है
मेरी नज़र में वो 'अहल-ए-कलम' है
....
* 'दर्द-ए-दम' = पीड़ा की तीव्रता intensity of pain, ache
* 'अहल-ए-कलम' = लेखक, कवि, कलमकार, कलम के योग्य, कलम का व्यक्ति, writer, poet, scriber
अमित........आपका कितना भी शुक्रिया करूँ कम है क्यूँ कि आप हरेक बार जब कमेन्ट करते हैं तो अपने शेर के जादू से मेरी पोस्ट को खूबसूरत बना देते हैं .....किसी को बहुत चाहा होई.....वो बिछड़ जाए.......फिर उस मोड पे मिले जहां आप किसी और के हैं और वो किसी और का.....तब के हालातों में खुद को संभाल पाना बड़ा ही मुश्किल होता है ........इसे आपने बेबाकी कहा.....तो यूँ ही सही
ReplyDeleteनिधि: निहायत ही खूबसूरती से लिखा गया है... पाने के साथ साथ एक डर हमेशा रहता है, खोने का...
ReplyDeleteप्यार है एक निशान कदमो का ....
जो मुसाफिर के बाद रहता है ......
भूल जाते है लोग सब लेकिन ........
कुछ न कुछ फिर भी याद रहता है ......
संबंधों के चक्रव्यूह भी बहुत दुरूह होते हैं !........मन का अभिमन्यु अपने अबोध विश्वास के सहारे उसमें प्रवेश तो कर लेता है....पर उस से बाहर निकल पाना उसके बस में कहाँ ??? ......वो जितने पड़ाव ....जितनी परतों को पार करता है..........उतना ही उलझता जाता है !....फिर कोई मुक्ति संभव नहीं !!!......
ReplyDeleteये यंत्रणा नारी ह्रदय के लिये कहीं और कष्टकर होती है ......क्योंकि वो अपनी पूरी अस्मिता से !...अपनी संपूर्ण अंतरात्मा से !......अपने मन - प्राण से !......हर स्पंदन.....हर श्वांस से !......अपने अन्तरंग संबंधों को जीती है !!!.....स्नेह के ये तंतु उसकी आत्मा के अन्दर........कहीं बहुत अन्दर तक उलझे हुए हैं ........और उनके उस अभेद्य चक्रव्यूह से उसका निस्तार संभव नहीं !!!
सालों के कड़े...निर्मम दुर्भिक्ष के बाद भी धरती के अंक में दबे हुए बीज के अन्दर जैसे कोमल प्राण छुपे रहते हैं.........और जैसे एक हलकी सी फुहार से उस बीज की संपूर्ण चेतना......जीवन की सम्पूर्ण सरसता ....अंकुरित हो कर खिल जाती है........बस वैसे ही अपने बिसराए हुए प्रणय के आधार को देख कर नारी कहाँ अपने वश में रह पाती है ???..... फिर अपने आप से डर लगता है !.........उदासीनता का वो आवरण कितना झीना है.......ये ओढने वाले से अधिक कौन जानता है !!!......वो कितना भी छुपाने का असफल प्रयास करे........ मन का विभीषण घर का भेदी हो ही जाता है !.......ये समूची देह का कम्पन.....ये अधीर , कातर नयन......ये चेहरे का उड़ता सा रंग.....सभी मुरली की धुन में उन्मादित अवश गोपियों से मुक्त रास करते हैं .........और वो विवश ...निरुपाय सी देखती ही रह जाती है !!!......हाँ ! बहुत डर लगता है बिखर जाने का .........वो जिसे इतने यत्न से सहेज कर रखा था.....वो सारा संयम.....वो सारा नियंत्रण...क्षण भर में कपूर सा उड़ जाता है .....और रह जाती है मात्र एक निसहाय सी कातरता !!!
निधि .......तुमने अपनी इस रचना में संबंधों के उस दुष्कर पल की सारी व्यथा अनावृत कर दी....जिसे समझने में एक उम्र लग जाती है !........सच में इतनी सी आयु में भी तुमने कितने वर्ष जी लिये हैं.........अब जान पायी हूँ !!!.....
पाने के साथ खोने का डर तो हमेशा साथ ही लगा रहता है.......MS.वो शख्स जिसे कभी प्यार किया हो .परिस्थितियों की वजह से बिछड़ जाए तो उससे कभी कहीं अकेले में मुलाक़ात हो तो ये नहीं समझ आता कि दिमाग की सुनें या दिल की मानें.......थैंक्स....इतने सुंदर शेर के लिए !
ReplyDeleteअर्ची दी......आप जब भी लिखती हैं.......मन को प्रफुल्लित कर देती हैं.....कितना भावनाओं से ओत-प्रोत........कितना सुन्दर शब्द चयन एवं शब्द संयोजन ........सबसे अच्छा है आपके बिम्ब......फिर चाहें अभेद्य चक्रव्यूह की बात हो.......निर्मम दुर्भिक्ष के बीज की बात हो..........मन के विभीषण की चर्चा हो या गोपियों की ......
ReplyDeleteआपको मेरी ये रचना पसंद आयी......मेरे लिए सौभाग्य की बात है.......जो खुद इतना अच्छा लिखता हो वो अगर कह रहा है कि अच्छा लिखा है तो .....मेरे लिए तो बड़ी बात है .
ये मन का विभीषण वाली बात तो जैसे मेरे दिल पर अंकित सी हो गयी है हो सकता है आगे की कोई रचना आपके इस एक वाक्य को समर्पित हो...
खूबसूरती से पिरोया हुआ हर एहसास कितना कुछ कह गया..!!!!
ReplyDeleteप्रियंका ...तुमने पढ़ा...शायद तुम्हें बहुत सी अन्तर्निहित..अनकही ..बातें भी समझ आई हों..इसलिए पोस्ट खूबसूरत लगी हो
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