Saturday, May 7, 2011

मुझमें बचपना है

आज तुम नाराज़ हो गए मुझसे
कहने लगे ,कि
मैं बड़ी कब होउंगी ?
बहुत बचपना है अब भी मुझमें.
मैं क्या करूँ मेरे अंदर का बचपना नहीं जाता ?
मानती हूँ, कि, तुम बड़े हो गए हो
मेरे अंदर का बच्चा क्यूँ कहीं नहीं जाता ?
सच कहूँ.....................
तो यही बचपना जो मुझमें है
वही हमारे रिश्ते कि डोर को मजबूती से थामे हुए है
कहीं जो मैं भी बड़ी हो गयी, तुम्हारी तरह
तो हमारा रिश्ता छोटा पड़  जाएगा.

तुम बड़े हो
तुम्हारा अहम भी बड़ा है
मुझमें बचपना है
इसलिए
अहम क्या होता है पता ही नहीं.

तुम बड़े हो गए हो
वादे करते  हो भूल जाते हो
मुझमें बचपना है
इसलिए उम्मीद के खिलौने से बहला देते हो.

तुम बड़े हो ,
तुम  बड़ी  बातों से ,चीज़ों से खुश होते हो
मुझमें बचपना है
मेरी खुशियाँ बस तुम तक सीमित हैं

तुम बड़े हो
सब कहा सुना याद रखते हो
मुझमें बचपना है
तभी, मुझे कुछ भी कह लेते हो
मैं भूल जाती हूँ.

तुम बड़े हो
आसानी से नहीं मानते
मुझमें बचपना है
तुम्हारे एक चुम्बन से मैं मान जाती हूँ.

अच्छा है न ,कि
"तुम" और "मैं "
दोनों ही बड़े नहीं हैं ......

17 comments:

  1. ... बहुत सुंदर ..निधि.... एक बार फिर 'अद्वितीय रचना' प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद .... मानवीय भावनाओ को बेहद खूबसूरती से परोसा है आपने...
    ...
    हँसने की चाह में कई बार रोना पड़ता है
    कुछ पाने के लिए बहुत कुछ खोना पड़ता है
    छुपा है शायद इसी में रिश्तों का बड़प्पन
    बड़ों को ही छोटा अक्सर होना पड़ता है

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  2. बडो को ही अक्सर छोटा होना पड़ता है....बिलकुल सही कहा अमित .रिश्तों को बचाने के लिए किसी को तो झुकना पड़ता है ......तारीफ करने के लिए शुक्रिया.

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  3. निधि जी, आपके शब्द आपकी सुन्दर भावनायों के प्रतीक हैं, संबंधों में अक्सर यह 'तू' और 'मैं' आती रहती है, बहुत ही सुन्दर रचना...

    जानता हूँ न कुछ मिलेगा, खुद को बड़ा कह के,
    अपने बचपन को, आज भी जिए जा रहा हूँ मैं...

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  5. वाह विनय जी किस खूबसूरती से आपने पूरी कविता को दो लाइनों में समेट लिया है......जानता हूँ न कुछ मिलेगा, खुद को बड़ा कह के,
    अपने बचपन को, आज भी जिए जा रहा हूँ मैं...
    बहुत आभार आपका कि आप आये,आपने वक्त निकाल कर पोस्ट को पढ़ा और टिप्पणी दी ........

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  6. @ निधि....... अद्भुत !....अनुपम !!...आज पहली बार अपने शब्दों की अक्षमता पर संकुचित हो रही हूँ ! ......ऐसा कुछ भी तो नहीं है मेरे पास जो तुम्हारी इस भावपूर्ण कृति के साथ न्याय कर सके !.... इस अबोध प्रश्न के अनिंद्य सौन्दर्य .......उसकी सूक्ष्मता .......उसके गहन दर्शन को छू सके !......कई बार तुमसे जानना चाहा है ...कि कैसे होता है ये कि मेरी सारी अनकही...अव्यक्त व्यथा तुम्हारे शब्दों में इतनी आसानी से , अनायास ही , छलक जाती है ?..........मेरा मौन आर्तनाद , मेरे लाख छुपाने पर भी तुम्हारे स्वर में उतर जाता है ??.........नारी मन की युगों - युगों की अकथ वेदना और त्रासदी कैसे स्वतः ही अपने आप को तुम्हारे सामने अनावृत कर देती है ???.......जानती हूँ ......इन सबके उत्तर तो तुम्हारे पास भी नहीं हैं !.......क्योंकि तुम तो वो ही लिखती हो जो तुम्हारी शिराओं में दौड़ता है !.......जो तुम्हारे अंतस में अंकुरित होता है !!......जो तुम्हारी दारुण पीड़ा से जन्म लेता है !!!......ये हमारी तुम्हारी यात्राएँ भी तो नितांत व्यक्तिगत होती हैं .....एकाकी.....निःसंग !!!
    पर हाँ ! सच कहती हो...........मेरी ही सरलता मेरे ही उपहास का कारण बनती आयी है !.......मेरा अबोध स्नेह ...मेरी सरल प्रीति मुझे केवल तिरस्कार और अवहेलना का ही प्रत्युतर दे पायीं हैं !!.......कई बार पूछना भी चाहा है उनसे ...कि सुनो.....क्यों मेरा भावातिरेक में आद्र हो कर छलक जाना .....तुमारे आगे पूर्णतः समर्पित हो जाना , बस उपेक्षा भर ही दे पाता है मुझे ???..........
    क्या ये सच नहीं कि आज मेरे जिस सरल स्नेह से तुम्हारा ये ' विवेकी ' ह्रदय उदासीन हो गया है ; कभी उसने ही बड़े मान मनुहार से...अपने अधिकार से उसी स्नेह का वरण किया था ?......मेरी मधुर प्रीति का वो अनंत विस्तार ...मेरे प्रणय का वो अथाह उद्वेग ....जिस से आज तुम इतने निर्लिप्त और विमुख हो ; कभी इन सब ने ही तुमको उन्मादित किया था !!!
    आज तुम बड़े हो गए हो.....दुनियादारी की सब बातें खूब जानते हो.......तुमको संबंधों की दुकानदारी भी समझ में आने लगी है !....अपने दंभ को ऊपर रख कर....अपनी शर्तों पर रिश्ते जीने की कला में निपुण हो चुके हो.......कहने सुनने का लेखा जोखा भी रख पाते हो !.....वहीं मैं ......केवल अपनी निरभ्र आस्था को समिधा बना कर .....अपने अहम् को..... अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को ही ...प्रेम के इस अक्षय यज्ञ में होम करती रही हूँ !!!....
    ये बात और है कि इसी अबोधपन पर ही हमारा ये सम्बन्ध अवलंबित है !.....ये उत्सर्ग है ....तो प्रीति भी है....प्रणय है.......आस्था है.....विश्वास भी है !!!......तुम ले पाते हो ...क्योंकि ये सब , बिना प्रतिदान की आशा के तुम्हारे चरणों में झर रहे हैं ! ...तुम्हारा सारा स्वामित्व मेरे इसे सरल समर्पण पर आश्रित है ..........अच्छा ही तो है ना ; कि मैं अभी बड़ी नहीं हुई !!!

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  7. अर्ची दी.........आपकी टिप्पणी की प्रतीक्षा पोस्ट लिखने के साथ ही प्रारम्भ हो जाती है.......आप भी प्रतीक्षा की सारी घड़ियाँ गिनवा लेने के उपरान्त ही अपनी प्रतिक्रया देती हैं......पर,सच कहूँ आपकी टिप्पणी अपने में इतना कुछ समेटे हुए होती है कि उसके लिए इतनी प्रतीक्षा तो बनती है......किसी भी अच्छी चीज़ के लिए इन्तेज़ार करना बिलकुल जायज़ है.आपकी भावों से ओत-प्रोत इस टिप्पणी को पढ़ने के बाद मुझे अपनी पोस्ट इसके समक्ष क्षुद्र लगने लगी है.
    दी,जब हम हम बड़े हो जाते है क्यूँ ऐसे हो जाते हैं???????वादे करते हैं ,निभाने के लिए नहीं बस दिल बहला भर देने के लिए........अपनी भावनाओं,अपनी चीज़ों का सब का सब लेखा-जोखा रखते हैं दूसरे के हिसाब किताब को कैसे भूल जाते हैं........इस जीवन में अधिकांशतः ये देखने में आता है कि सरलता को एक गुण ना मानकर ,उसकी गणना अवगुण मैं करते हैं........क्यूँ,अपनी गलतियां भूल जाते हैं दूसरे की भूल को याद रखते हैं..........अपने अहम को ठेस लगे तो जीवन पर्यंत उस चोट को कुरेद कुरेद कर याद रखते हैं.......दूसरे का अहम भी होता है ये भूल जाते हैं.....अच्छा है न कि हम अपना बचपना कहीं किसी कोने में सहेज कर रखें .........

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  8. Mohammad ShahabuddinMay 12, 2011 at 11:03 PM

    निधि: कितनी सरलता से तुम अपने मन की बात को शब्दों में पिरो देती हो...सच कहें यह हुनर बिरले लोगो में ही होता है...सारी तारीफ के शब्द तो अर्चना दीदी ने पहले ही उंडेल दिए हैं,.कहने को कुछ बाकी नहीं रहा है....मुझे तो एक बार पढ़ा था वोह याद आ रहा है की मुहब्बत की तबियत में यह कैसा बचपना कुदरत ने रखा है, के यह जितनी पुरानी जितनी भी मज़बूत हो जाये, इसे ताईद -इ -ताज़ा की ज़रुरत फिर भी रहती है, यकीन की आखिरी हद तक दिलों में लहलहाती हो, निगाहों से टपकती हो , लहू में जगमगाती हो ! हजारों तरह के दिलकश , हसीं हाले बनती हो, इसे इज़हार के लफ़्ज़ों की हाजत फिर भी रहती है , मुहब्बत मांगती है यूँ गवाही अपने होने की, के जैसे तिफ्ल -इ -सदा शाम को इक बीज बोये, और शब् में बढ़ा उठे, "यह सच है न ____! हमारी ज़िन्दगी इक दूसरे के नाम लिखी थी, धुंधलका सा जो आँखों के करीब दूर फैला है, इसी का नाम चाहत है, तुम्हें मुझसे मुहब्बत थी, तुम्हें मुझसे मुहब्बत है, मुहब्बत की तबियत में यह कैसा बचपना कुदरत ने रखा है !!....

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  9. आदरणीया निधि जी
    सादर अभिवादन !

    मुझमें बचपना है भी आपके ब्लॉग पर लगी बहुत-सी अन्य जो रचनाएं मैंने पढ़ीं , उन्हीं की तरह अच्छी लगी … ।
    भाव बहुत कोमल हैं …
    समापन बड़ी ख़ूबसूरत मा'सूमियत के सहारे हुआ है … बधाई !

    लेकिन बुरा न मानें तो कुछ बात करें ?
    जब आप कहती हैं कि-
    तुम बड़े हो
    तुम्हारा अहम भी बड़ा है
    मुझमें बचपना है
    इसलिए
    अहम क्या होता है पता ही नहीं …

    यहां ऐसा नहीं लगता कि विरोधाभास आ गया है ?
    अहम क्या होता है पता न होने की अपेक्षा अहम भाव ही उभरा लगता है …

    …और
    तुम बड़े हो
    सब कहा सुना याद रखते हो
    मुझमें बचपना है
    तभी, मुझे कुछ भी कह लेते हो
    मैं भूल जाती हूं …

    यहां भी जब स्वयं घोषित करते हैं कि कुछ याद नहीं , तब लगता है कि गिन गिन कर गांठें बांध रक्खी हैं …

    आशा है , अन्यथा नहीं लेंगी …

    हार्दिक शुभकामनाओं सहित
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  10. अर्ची दी.........आपकी टिप्पणी की प्रतीक्षा पोस्ट लिखने के साथ ही प्रारम्भ हो जाती है.......आप भी प्रतीक्षा की सारी घड़ियाँ गिनवा लेने के उपरान्त ही अपनी प्रतिक्रया देती हैं......पर,सच कहूँ आपकी टिप्पणी अपने में इतना कुछ समेटे हुए होती है कि उसके लिए इतनी प्रतीक्षा तो बनती है......किसी भी अच्छी चीज़ के लिए इन्तेज़ार करना बिलकुल जायज़ है.आपकी भावों से ओत-प्रोत इस टिप्पणी को पढ़ने के बाद मुझे अपनी पोस्ट इसके समक्ष क्षुद्र लगने लगी है.
    दी,जब हम हम बड़े हो जाते है क्यूँ ऐसे हो जाते हैं???????वादे करते हैं ,निभाने के लिए नहीं बस दिल बहला भर देने के लिए........अपनी भावनाओं,अपनी चीज़ों का सब का सब लेखा-जोखा रखते हैं दूसरे के हिसाब किताब को कैसे भूल जाते हैं........इस जीवन में अधिकांशतः ये देखने में आता है कि सरलता को एक गुण ना मानकर ,उसकी गणना अवगुण मैं करते हैं........क्यूँ,अपनी गलतियां भूल जाते हैं दूसरे की भूल को याद रखते हैं..........अपने अहम को ठेस लगे तो जीवन पर्यंत उस चोट को कुरेद कुरेद कर याद रखते हैं.......दूसरे का अहम भी होता है ये भूल जाते हैं.....अच्छा है न कि हम अपना बचपना कहीं किसी कोने में सहेज कर रखें ......

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  12. @राजेंद्र जी....क्षमा कीजियेगा बिना परिचय के बोल रही हूँ किन्तु निधि की कविताओं को मैं अपनी ही अव्यक्त अनुभूतियाँ ......अनकही पीड़ा समझती हूँ और इस सम्बन्ध से मैं यह अनाधिकार चेष्टा कर रही हूँ,आपसे पुनः क्षमाप्रार्थिनी हूँ .
    आपसा कविता मर्मज्ञ ......सुधी जन किसी कवि को मिल जाए तो यह उसका सौभाग्य ही माना जायेगा ..आपका.....प्रथन......मनन....चिंतन. ..कितना गहन है इसके बारे में अधिक कह कर आपको संकोचित नहीं करूंगी .....पर ,हाँ ,ऐसा ही है ..यह सच!
    फिर भी कुछ स्पष्टीकरण की संभावना अवश्य है ..जब निधि यह कहती है ....तुम बड़े हो
    तुम्हारा अहम भी बड़ा है
    मुझमें बचपना है
    इसलिए
    अहम क्या होता है पता ही नहीं .........
    तो यह वस्तुतः उसकी......मेरी दृष्टि में ,नारी ह्रदय की सरलता का परिचायक है...अहम का नहीं .यही तो उसका भोलापन है कि जिसको सर्वस्व मानती है.....उसकी शिकायत भी उसी से करती है .........वो नितांत अपना जो है! जिसको मन का संपूर्ण अधिकार देती है.......उसकी उलाहना भी उस ही से करती है .....वो नितांत अपना जो है!! जिसके लिए स्वतः समर्पित है उसका उपालम्भ भी उस ही से करती है .........वो नितांत अपना जो है!!!
    यह जमा की हुई गांठें नहीं हैं....गांठों का हिसाब भी नहीं है ......यह मात्र उसका अबोध स्नेह है!
    जो प्राणों का सब कुछ हो ....उस से ही तो अपेक्षाएं होती हैं.....उससे ही तो अधिकार मांगे जाते हैं.......उससे ही तो प्रणय याचना होती है.........!!!जो उस से ही न कहेगी तो फिर किस से कहेगी ...........कहिये तो???

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  13. राजेंद्र जी......आप मेरे ब्लॉग पर आये .....कई पोस्ट पढ़ी....सराही..मुझे बहुत अच्छा लगा ......सबसे अच्छा ये लगा कि आपने इतनी बारीकी से पोस्ट को पढ़ कर अपनी प्रतिक्रया दी ...यूँ तो अर्चना दी ने मेरा काम बहुत आसान कर दिया पर तब भी मैं कहूंगी कि यहाँ विरोधाभास नहीं है...........बच्चे में ,''मैं ''का भाव होता है पर वो रिश्तों के आड़े नहीं आता ...दीवार नहीं बनाता.....वही बचपना नारी में है जो वो सहेजना चाहती है.
    मुझे बहुत खुशी हुई कि किसी ने तो पोस्ट पर खुल कर लिखा.....आपने कहा कि अन्यथा न लूं. .........अन्यथा लेने वाली तो यह बात भी नहीं है......हाँ,यह ज़रूर कहूंगी कि कहीं मेरी ही कमी है कुछ ...जो आप को मैं समझा नहीं पायी कि मैं ,दरअसल कहना क्या चाहती हूँ.............आगे प्रयास करूंगी कि ऐसा न हो.....पर, आपका सहयोग इसी तरह आगे भी चाहूंगी

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  14. nidhiji bahut sunder kavita likhi hai aapne,kavita n kahu to behtar hoga kyoki ye aapka dil hai jo utar aaya hai is madhyam par jise humne ya hum jaise logon ne pad kar apne ander ke bachpane ko jhanka hai aur socha hai ki shayad vastvikta mai kuchh rishton mei agar ek bada samajhta hai to doosre ko chhota hokar rishte ki khusurti ko barkarar rakhna chahiye varna do bade to sirf lad hi sakte hai apne aham ko upar rakhne ke liye.aapko bahut bahut badhai itne sunder bhavon se awgat karane ke liye.

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  15. निधि जी एक और सुन्दर कविता आपकी कलम से !

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  16. सुनीला जी.............बहुत आभार!!!!!!आप ने तो मेरी रचना में कही गयी मूल बात को बहुत कायदे से पकड़ लिया है..........पूर्णतयः सहमत हूँ कि रिश्तों में अहम के होने से रिश्तों से अपनत्व समाप्त हो जाता है..........रिश्तों की खूबसूरती के लिए ज़रूरी है कि अपने अहम को रिश्ते से बड़ा कभी ना होने दें

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  17. आपसे पढ़ने वाले कम लोगों को मिलते हैं संजय जी...........
    मेरी खुशनसीबी है कि आप मेरी रचनाओं को पसंद करते हैं

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सुराग.....

मेरी राह के हमसफ़र ....

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