Tuesday, June 28, 2011

नारी की स्वतंत्रता

मैं ,नारी की  स्वतंत्रता ..
..बराबरी के हक के लिए
लड़ती हूँ ....आंदोलन करती हूँ
चर्चाओं में शामिल होती हूँ
धरने ,मीटिंग में जोरदार भाषण देती हूँ
खूब तालियाँ बटोरती हूँ
सब को प्रेरित करती हूँ
कि औरतें  आगे बढे ...बराबरी पे आये .
पर ,
अपने घर से झूठ बोल कर निकलती हूँ
वक्त पे घर पहुँचने के लिए सारा वक्त घडी देखती हूँ
तालियाँ बटोरकर...घर पहुँच ,गालियाँ बटोरती हूँ
घर में हरेक शख्स का फूला हुआ मुंह देखती हूँ
पति का भाषण सुनती हूँ
करवट लेकर,रोते-रोते
बिना कुछ खाए सो जाती हूँ

अगले दिन ,सवेरे
इसी सब से प्रेरणा लेकर
लिखती हूँ एक भाषण 
औरत की बराबरी पर
औरत के हक पर
फिर निकल पड़ती हूँ
नारी की अस्मिता ,अस्तित्व
पर चर्चा करने
परिस्थितियाँ बदलने ...

(प्रकाशित)

19 comments:

  1. shayad kabhi aapka bhashan rang le aaye......

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  2. ओह ..यह कैसी विडंबना है ...

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  3. वंदना .....शुक्रिया!घूमते हुए ज़रूर आ जाऊँगी .

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  4. मृदुला जी...भाषण से नहीं बल्कि ,बराबरी की शुरुआत अपने घर से करे....तो शायद बदलाव आ जाए

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  5. महेंद्रजी ....धन्यवाद....!!जिंदाबाद-जिंदाबाद !!

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  6. संगीता जी...यही विडंबना है..बाहर भाषण देना आसान है बनिस्पत अपने घर से बदलाव की शुरुआत करने से ..

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  7. Paristithiiyaann.....aur Stithiiyaan......dono kaa apnaa...apnaa swaroop haiiii......Paristithiiwash swtantrataa ke liiye Ladnaa chaahtey ho....yaaa Stithii sudhaarney ke liiye Iss RUN ko Aagey lekar badhaanaa chaahtey ho....
    Panney khoLo.....HULL SWAT: mill Saktaa haiii...Cheer'ss 2 women POWER
    bahut achey vichaar Nidhi ...aaap kii shabdaawalii se nikley yeh MOTI

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  8. अंकुर...............शुक्रिया..आपने भी बड़े ही खूबसूरत तरीके से अपनी बात रखी है...पढ़ कर अच्छा लगा .

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  9. रवि जी........धन्यवाद!!मेरे इस सच को समझने के लिए .

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  10. सच्चाई को सामने लाती रचना ...आज नारी स्वतंत्रता मात्र शब्दों में रह गयी है ....और यहाँ होने वाले सम्मेलनों और भाषणों का आपने बखूबी चित्र खिंचा है जहाँ नारी स्वतंत्रता का जिक्र होता है ....आपका आभार

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  11. nidhiji kyo aap har baar mere dil ko chhoo jati hai,kyo aisa lagta hai ki aap merei soch ko har baar sunder alfaaz de deti hai.jo bhi kaha bilkul sahi kaha.aaj bhi mai,aap ya koi aur aurat yahi to kar rahi par doosro ko zaroor shiksha de rahi hai ki utho ,lado apne adhikaar ke liye.pata nahi kab tak hum aisa karte rahenge?bahut bahut abhar is sunder kriti ke liye.

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  12. सुनीला जी........आपने जो भी लिखा उसके लिए मैं क्या कहूँ ....हाँ यह ज़रूर है कि जब कोई ये कहे कि मेरे दिल कि बात आपने लिख दी तो बहुत अच्छा लगता है .इन आन्दोलनों मैं मैंने भी शिरकत की है...मैं यह नहीं चाहती ये सब बंद हों...जो अपने हक की लड़ाई खुद नहीं लड़ सकती उनके लिए यही माध्यम हैं लड़ने का..धरना,मीटिंग वगैरह.पर,यह चाहती हूँ कि जो उनके लिए लड़ते हैं पहले वो अपने घर से बराबरी की बात करें...वहाँ से पहल करें..केवाल भाषणों से काम नहीं चलेगा उसे जीवन में उतारें ...अपने घर से आगाज़ करें .

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  13. केवल राम जी...आभार आपका कि रचना आपको सच के करीब लगी.यह काफी है मेरे लिए .

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  14. ... 'निधि' आप इतनी सहजता से बड़ी से बड़ी बात बेहद सरलता से कह देती है... ये यकीनन 'काबिल-ए-तारीफ़' है ..... बेहद सच्चाई से आपने दोहरी भूमिकाओं के चरित्र और पारिस्थितियों को उजागर किया है .... ये परिस्थिति महज 'नारी' तक ही नहीं महदूद... तमाम 'पुरुष' भी अपनी अपनी वजहों से ऐसी दोहरी जिंदगी जीने को विवश होते है .. घर में कुछ और बाहर कुछ और... .

    मालूम ही नहीं कि कब घर बिखर गया
    मैं तो समाज को संजोने में लगा था

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  15. मालूम ही नहीं कि कब घर बिखर गया
    मैं तो समाज को संजोने में लगा था ..........बहुत बढ़िया...शेर !
    अमित,आपने बिलकुल सही कहा कि घर पर लोग कुछ और होते हैं और बाहर कुछ और दिखाते हैं...जहां तक बात है स्त्रिओं की तो मैं आपसे सहमत हूँ कि पुरुष और स्त्री दोनों ही ऐसी दोहरी ज़िंदगी जीते हैं .मैंने यहाँ स्त्री को इसलिए चुना क्यूंकि स्त्रिओं के लिए इस प्रकार के धरने,मीटिंग,आंदोलन ज्यादा होते हैं .

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  16. ये हम जो अक्सर दोहरी जिंदगियां जीते हैं......... ये हम जो अक्सर मुखौटे ओढ़ कर जीते हैं.....अपने आप को कितना भरमाते हैं ना !.......पर शायद जीने के लिए कुछ भरम....कुछ आत्म- प्रवंचनाएं भी ज़रूरी होती हैं !........जो इनका आश्रय न हो तो , कौन जाने , ये सांसें कितनी दुष्कर हो जाएँ !
    कई बार सोचती हूँ ........कि नारी का जीवन इतना विसंगतियों से भरा क्यों होता है ?......हर पल अपने होने का अपराध भाव.....क्यों झेलना पड़ता है हमें ?........क्यों हमेशा औरों की सहमति....उनकी पसंद - नापसंद....उनकी मर्ज़ी....ख़ुशी.....नाराज़गी का मुँह देखना पड़ता है ?
    हमारा अपना अस्तित्व....अपनी अस्मिता ....का क्या कोई अर्थ नहीं ?.......क्या हमारा होना ..मात्र औरों की मंज़ूरी का मोहताज है ?..... कौन कब किस बात पर रूठ जाए .....कौन किस बात से अकारण ही आहत हो जाए .....किस की भृकुटी कब तन जाए.......इन सब से अपने ' होने ' को बचा के...छुपा के चलना भी ठीक तलवार की धार पर चलने जैसा ही तो है !
    ये हम जो सारी दुनिया की क्षमता से पूर्ण हैं !.....ज्ञान...कला....समझ....परख....विवेक....सभी में निपुण हैं !........... ये हम जो अन्य सभी कामों के लिए तो सक्षम हैं.......यकायक .....इतनी नासमझ....और अज्ञानी कैसे मान ली जाती हैं ?........ क्यों हमारा हर निर्णय दूसरों पर आश्रित रहता है ?
    और जो यूँ ही है.............तो फिर इस जीवन का अर्थ क्या रह जाता है ?........
    कुछ साँसों के चलने से...... कुछ स्पंदन के होने से......ही तो देह प्राणमय नहीं हो जाती !........जीवन का अपना भी गौरव होता है......... प्राणों की अपनी भी गरिमा होती है ...........
    पर जाने .......ये सब तुम कब समझोगे ???

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  17. अर्ची दी..आप तो कुछ भी लिख दें...वो मेरे लिखे से मुझे ज्यादा अच्छा लगता है...मुझे यही लगता है कि जो मुझसे कहना छूट गया था वो आपके कमेन्ट ने जैसे पूरा कर दिया है ..
    स्त्री कि यही त्रासदी है ....वो अपने लिए कहाँ जी पाती है...सबकोई इच्छाओं की पूर्ति करते-करते उसकी अपनी इच्छाएं कहाँ गुम हो जाती हैं ...ये उसे खुद भी पता नहीं चलता..पर वो दिखावा करती है कि उसकी इच्छा यही है कि सब उससे खुश रहे ..
    नारी आंदोलन में जो बहुत सक्रिय हैं उनके अपने घर बिखरे हैं...दूसरों के लिए जिन बातों पर लड़ती है और जीत जाती हैं वही उन मुद्दों पर अपने घर में अपनों से पराजित हो जाती हैं

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टिप्पणिओं के इंतज़ार में ..................

सुराग.....

मेरी राह के हमसफ़र ....

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