मेरे मन के सावन को
मैं अक्सर रोक लेती हूँ
अपने ही भीतर.
बंद कर देती हूँ
आँखों के पट
आंसुओं को समेट के .
मार देती हूँ कुण्डी
मुंह पे ,सिसकियों को उनमें भर के .
साथ ही साथ ..
नहीं भूलती
लगाना ताला
अपने गले पे
सारी चीखें और रुंधा हुआ सब
कहीं गहरे ही दफना के .
कितना भी रोक लूँ
सावन रुकेगा क्या
मेरे रोके जाने से ..
लो,
आ ही गया सावन झूम के