ज़िन्दगी एक किताब सी है,जिसमें ढेरों किस्से-कहानियां हैं ............. इस किताब के कुछ पन्ने आंसुओं से भीगे हैं तो कुछ में,ख़ुशी मुस्कुराती है. ............प्यार है,गुस्सा है ,रूठना-मनाना है ,सुख-दुःख हैं,ख्वाब हैं,हकीकत भी है ...............हम सबके जीवन की किताब के पन्नों पर लिखी कुछ अनछुई इबारतों को पढने और अनकहे पहलुओं को समझने की एक कोशिश है ...............ज़िन्दगीनामा
Friday, September 16, 2011
तुमसे मिल भी नहीं पाती ..
मन करता है ....
तुमसे मिलूँ ,ढेरों बातें करूँ
पर,फिर.........
ज़माने का डर
रोक लेता है मुझे .
इस भय को जो किसी तरह
मैं पार कर लेती हूँ ..
तो,मेरे कदम रोक लेती है
मेरी शर्म,मेरी ही हया
उसपे संस्कारों की बाधा
इतने तो बंधन हैं आज भी ..
फिर क्यूँ सब कहते हैं
कि वक्त बदल गया है.
स्वतंत्र है नारी ,
हर काम कि उसे है आजादी .
जबकि मैं तो बिना भय के
तुमसे मिल भी नहीं पाती
हरदम यही खटका
कि किसी ने देख लिया तो क्या होगा
बिना किसी अपराधबोध के
तुमसे प्यार भी नहीं कर पाती हूँ .
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आदरणीय निधि जी
ReplyDeleteनमस्कार !
प्रेम को परिभाषित करती खूबसूरत प्रस्तुति नए बिम्बो के साथ आपने दिल की बात को बड़ी दिलकश अदा के साथ रखी है.......!
बढ़िया प्रेम अभिव्यक्ति के लिए बधाई निधि जी ! शुभकामनायें
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति ..यह मन के बंधन हैं ...जो खुल कर मिलने भी नहीं देते .
ReplyDeleteप्यार में खुद ब खुद पाँव थम थमकर चलते हैं
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दरता से व्यक्त किया है आपने हर शब्द को ... आभार ।
ReplyDeleteसंजय जी...शुक्रिया !!दिलकश अदा तो मुझे नहीं पता ..पर हाँ कई बार जो मन में आता है..अक्षरशः उतार देती हूँ
ReplyDeleteसंगीता जी...मन के बंधन ...अजीब से बंधन..न खुल कर बोलने दें..न खुल कर मिलने.
ReplyDeleteरश्मिप्रभा जी...आभार !!प्रेम जो न करवाए वो कम है
ReplyDeleteसदा .........हार्दिक धन्यवाद,पोस्ट को पसंद करने के लिए
ReplyDeleteप्रेम के भावो को बहुत ही खूबसूरती से प्रस्तुत किया है आपने....
ReplyDeleteसुषमा ....तहे दिल से आका शुक्रिया!!
ReplyDeleteबहुत भावपूर्ण एवं मार्मिक प्रस्तुति ! बहुत सुन्दर
ReplyDeleteहमारा समाज आज भी इतना परिपक्व नहीं हुवा ... समय के साथ साथ बदल जाएगा ... और हम जैसों ने ही बदलना है ...
ReplyDeleteअच्छी रचना है ...
अंकित जी....आपने पढ़ा और सराहा...आभार!!
ReplyDeleteदिगंबर जी..परिवर्तन में तो वक्त लगता ही है...देखिये कब तक हम बदल पाते हैं इस समाज को .
ReplyDelete:):)खूबसूरत लिखा है बहुत!!
ReplyDelete.. बेहद खूबसूरत रचना..निधि... भावनाओं से सराबोर ...
ReplyDeleteदस्तूर-ओ-रिवाजों से हिल नहीं पाता
चाह कर भी उसे मिल नहीं पाता
'हवा-ओ-पानी' की पाबंदियां हो जिसपर
वो गुल बहारों में भी खिल नहीं पाता
ज़माने का डर, रोक लेता है मुझे ..
ReplyDeleteमेरी शर्म मेरी ही हया , उसपे संस्कारों की बाधा .....हरदम यही खटका , की किसी ने देख लिया तो क्या होगा.....
आज इतनी तरक्की के बाद, महिलाएं की पढाई के बाद , आज समाज उन्ही लोगों का है जो कुछ सालों पेहले वो खुद हर तरह की आज़ादी चाहते थे और उनकी मौजूदगी के बावजूद ,हमको ये समाज बोलना पड रहा है . आपको बोलना पड रहा है " देखते है कब तक हम बदल पाते है इस समाज को " यहाँ हम और समाज क्या अलग है ? हम बेफिक्र नहीं है , हम पडोसी की, पुरे मोहोल्ले की फिक्र रखते है , उसी तरह समाज हर बिरादरी वाले की फिक्र ( खबर) रखता है . ये जो फिक्र है वोही ज़माने का डर कहा जा सकता है की किसी ने देख लिया तो क्या होगा. हर सदस्य अपनी खुद की आज़ादी चाहता है बस हमें बेफिक्र बनना पड़ेगा , कम से कम दूसरों के मामले के लिए तो जरूर बनना पड़ेगा . अगर समाज नहीं बदला तो इसका मतलब हम नहीं बदले . हमें बदलना होगा समाज अपने आप बदल जायेगा फिर सही में दिखाई देगी नारी की स्वतंत्रता और होगी हर काम की आज़ादी . आप उनको रास्ता दिखाईये जो देखते हुवे भी अंधे बने हुवे है , उनको बताये समाज और कोई नहीं वो खुद है . सभी खुद से डरे हुवे है वो डर निकाल ना होगा
नयंक जी..सबसे पहले तो आपका आभार की आपने इतने विस्तार से ,मेरी कविता के प्रत्येक पक्ष को लेते हुए ..एक विवेचनात्मक टिप्पणी प्रस्तुत की ..मैं आपसे पूर्ण रूप से सहमत हूँ की हरेक इंसान स्वयं को बदले तो समाज स्वयं ही बदल जाएगा..पर बदलाव आने में,रीति रिवाज़,पुरानी प्रथाएं यूँ ही एकदम से नहीं बदलती..समय लगता है
ReplyDeleteशुक्रिया...अमित.आपके शेर भी बढ़िया हैं...पाबंदियां जहां हो वहाँ विकास स्वतः रुक जाता है
ReplyDeleteअभी...शुक्रिया,रचना को पसंद करने के लिए
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