ज़िन्दगी एक किताब सी है,जिसमें ढेरों किस्से-कहानियां हैं ............. इस किताब के कुछ पन्ने आंसुओं से भीगे हैं तो कुछ में,ख़ुशी मुस्कुराती है. ............प्यार है,गुस्सा है ,रूठना-मनाना है ,सुख-दुःख हैं,ख्वाब हैं,हकीकत भी है ...............हम सबके जीवन की किताब के पन्नों पर लिखी कुछ अनछुई इबारतों को पढने और अनकहे पहलुओं को समझने की एक कोशिश है ...............ज़िन्दगीनामा
Friday, August 12, 2011
रोज़ मिलना...औपचारिकता ??
रोज़ ,तुम्हारा ...
मुझसे मिलना, बातें करना
हंसना-बोलना,साथ-साथ चलना
तुम्हें,अटपटा सा लगता है ,ये सब करना.
लगता है कि प्यार में ये कैसा दिखावा?
इन औपचारिकताओं की क्या आवश्यकता है ??
इन प्रदर्शनों में खुद को क्यूँ कर सीमित करना है ???
हमारी मित्रता तो यथार्थ के धरातल पर टिकी है.
वास्तविकता के आधार पर उसकी नींव टिकी है
शायद,इसीलिए ...
तुमने यह कहा मुझसे
कि
प्रेम तो मूक अभिव्यक्ति है...
बिन शब्दों के भी सब समझा जा सकता है
बिन मिले भी एक दूसरे को जाना जा सकता है
यही तो प्रेम की पहली सीढ़ी है...
"रोज मिलने से कहीं अच्छा है ,
कि जब ज़रूरत हो तब मैं तुम्हारे पास हूं.
ऐसे बात करने से क्या लाभ
कि जब तुम तन्हाई से घबराओ तब मैं न पास हूँ.
रोज साथ चलने से अच्छा है,ज्यादा
कि जब तुम गिरो तब संभालने को मेरा हाथ हो.
तुम्हारे कहे गए ये सारे वाक्य ,
रात दिन मुझे याद आते हैं.
पर,तुम्हारी कही इन बातों का क्या कोई फायदा है?
क्यूंकि क्या तुम यह बात नहीं समझते हो,
कि रोज बोलना शायद ज़रूरी न हो
पर बिन बोल क्या तुम समझ जाओगे
कब मुझे है क्या परेशानी,कब मुझे है ज़रूरत तुम्हारी
मात्र प्रेम के दृढ आधार के बाल पर जान पाओगे...सब?
जब मिल सकते हों
तब भी रोज मिलना,साथ चलना आवश्यक नहीं
पर एक बात बता दो फिर,कि
क्या तुम्हारे पास है वो शक्ति,
कि बिन मेरे साथ चले ही
ठोकर कहाँ लगी,कहाँ मैं गिरी
तुम जान जाओगे....??
चलो,मैंने...इस सत्य को स्वीकार लिया
कि अनूभूतियों का,भावनाओं का अपना मोल है
पर ,यह जो व्यवहारिक दुनिया है ...इसका क्या ?
मेरे...तुम्हारे जैसे इंसानों में
अंतर्यामी होने का गुण है क्या?
जो बिन कहे,मिले हम सब जान -समझ लें.
बिन मिले,बोले,साथ चले
ज़रूरत के समय चाह कर भी ...
साथ नहीं दे पायेंगे...
पता कैसे चलेगा कि ..
कौन कब खुश है,रुष्ट है...या कोई कष्ट है.
तुम भी तो कहते हो भावनाओं से ही इंसान ...इंसान बनता है
फिर उसे दिखाने में शर्म कैसी और क्यूँ ?
मुझे इंसान रहने दो...मशीन मत बनने दो
क्षुद्र इंसान हूँ मैं,यह मत भूलो
प्रेम यूँ तो इन सबसे उपर है
पर इसके पोषण में यही छोटी बातें,मुलाकातें
अपना योगदान देती हैं .
ये एक-एक इकाई ही जब जुड़ती है
प्रेम नवीन होता जाता है
ठहराव से बचता है
बिना अवरोध बहता जाता है
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हमेशा की तरह अनोखे भाव और अनूठे बिम्ब लिये,जीवन की बारीकियाँ समझाती यह नज़्म!!
ReplyDeleteबेहद सुन्दर लिखा है आपने...... क्या बात है ......निधि जी ........ बेहतरीन प्रस्तुति
बहुत ही प्रभावशाली कृति ...सच्चाई को वयां करती हुई अत्यंत सुन्दर रचना
ReplyDeleteबहुत प्रवाहमयी अभिव्यक्ति
ReplyDeleteवाह प्रेम को नये आयाम दे दिये…………बेहद शानदार कविता बहुत पसन्द आये कविता के भाव्।
ReplyDeleteक्या कहने
ReplyDeleteबहुत सुंदर भाव
अच्छी रचना
निधि जी
ReplyDeleteइन्सान और इंसानियत दिखाने में कैसी शर्म -मुझे इंसान ही रहने दो मशीन मत बनाओ --सुन्दर रचना खुबसूरत भाव -
भ्रमर५
bahut sundar rachna...aabhar
ReplyDeleteबहुत गहन भाव लिए हुए हैं आपकी यह कविता।
ReplyDeleteसादर
प्रेम के भावो को बहुत ही खूबसूरती से प्रस्तुत किया है आपने...
ReplyDeletenidhi ji pahli baar padh rahi hoon aapko aapke shabd dil ki gahraai se nikle prateet hote hain.pyaar ke bahut achche bhaav hain rachna me.achcha laga aapke blog par aakar jud rahi hoon aapse.saath hi apne blog par bhi aane ka nimantran de rahi hoon.
ReplyDeleteप्रेम भाव की एक अनमोल कॄति....सुन्दर....
ReplyDeleteबहुत अच्छी अभिव्यक्ति
ReplyDeleteसंजय जी...बहुत -बहुत आभार !!रचना को पढ़ने के लिए ...आप हमेशा वक्त निकालते हैं,मैं शुक्रगुज़ार हूँ .
ReplyDeleteसंगीता जी...शुक्रिया !!
ReplyDeleteवंदना...प्रेम स्वयं इतना बहुआयामी है कि अपने आप ही कोई नया पहलू सामने आ कर खडा हो जाता है...जब लिखने बैठती हूँ .
ReplyDeleteमहेंद्र जी...उत्साहवर्धन हेतु...थैंक्स !!
ReplyDeleteसुरेन्द्र जी...आप पहली बार ब्लॉग पर आये...प्रतिक्रया भी दी...आभार!!!
ReplyDeleteप्रियंका...थैंक्स!!
ReplyDeleteयशवंत.....धन्यवाद!!
ReplyDeleteसुषमा...मुझे लगता है ...प्रेम जिस चीज़ से जुड जाए वो खुद ही खूबसूरत हो जाती है...हैं न?
ReplyDeleteराजेश कुमारी जी...आप मेरे ब्लॉग पर आयीं ....रचना पढ़ी...टिप्पणी करी.तहे दिल से शुक्रिया !!आपने उत्साह वर्धन किया...मैं आद्र हो गयी ...प्रयास करूंगी कि आगे भी आप का साथ यूँ ही मिलता रहेगा ...और मैं आपकी उमीदों अपर खरी उतरूंगी ...आपके ब्लॉग पर मैं जल्द ही आऊँगी .
ReplyDeleteमहेश्वरी जी...आभार.
ReplyDeleteवन्दना....धन्यवाद!!
ReplyDeleteबहुत उम्दा प्रस्तुति....
ReplyDeleteभावपूर्ण सहज अनुभूतिजन्य कविता के लिए निधि जी आपको बहुत बधाई !
ReplyDeleteप्रसन्न जी...शुक्रिया ...आपने सराहा एवं मेरा उत्साह बढ़ाया .
ReplyDeleteसहज साहित्य ....धन्यवाद !!
ReplyDeleteप्रभावी रचना....बधाई.
ReplyDeleteउड़न तश्तरी जी......तहे दिल से आपका शुक्रिया !!
ReplyDeleteबेहद सुंदर रचना निधि एक बार फिर... अपना एक मतला और शे'र याद आ गया..
ReplyDeleteसिलसिला मिलने जुलने का बहरहाल जरूरी है
पर रिश्तो में ताज़गी के लिए अंतराल ज़रूरी है
तुम्हारी जरूरत किसी की दिक्कत न बन जाए
बहुत बेतकल्लुफ रिश्तो में भी यह ख्याल ज़रूरी है
अमित ..आभार!!शेर बहुत खूबसूरत हैं...अधिकतर अपनी बात कहनी पड़ती है...कोई अंतर्यामी नहीं होता...आपने कहा अंतराल ज़रूरी होता है..पर अंतराल इतना भी ना हो कि फासले हो जाएँ
ReplyDeletedr nidhi ji
ReplyDeleteaap mere blog par aai sach!bahut hi achha laga iske liye aapko hardik badhai
aapki rachna ki kya tarrif karun uske layak shayd mere paas shbd nahi hai.
sach me prem ki pribhashha v uski parakashhtha ko jo chitran aapne kiya hai vah adhbhut hai .
bahut bahut hi behtreen lagi aapki yeh post .
hardik badhai swikaren
poonam
पूनम जी...मुझे आपके ब्लॉग पर आकर..बहुत अच्छा लगा ...
ReplyDeleteआपकी बधाई स्वीकारती हूँ...और आपको भी धन्यवाद देती हूँ कि आपने मेरे ब्लॉग पर आकर ...रचना को पढ़ा ...पसंद किया एवं टिप्पणी भी दी .